घड़ी एक मैंने तराशा उसे जब....
दिलों में हकीकत की छत दिख गई...
खुद से भी ज्यादा चाहत थी जिसकी
वही बेवफाई का ख़त लिख गई..
खाई थी कसमें.. निभायेंगे बंधन..
जिएंगे मरेंगे न टूटेगा बंधन...
महकेगा मन में सुगंधित सा चंदन..
लगाए थे नयनों में प्यारा सा अंजन..
अचानक से टूटी मोती की लड़ियां...
खुलने लगी... बंधी थीं जो कड़ियां..
मोती गले में ऐसे पिरोए...
फिर तो उदासी की लत लग गई....
खुद से भी ज्यादा चाहत थी जिसकी
वहीं बेवफाई का खत लिख गई..
अब दिखता नहीं है नजरों से कुछ भी...
स्वारथ की मोटी परत चढ़ गई.....
गुजारे थे लम्हे, हकीकत के सपने
उसी ने डुबाए, कई राज अपने...!
अपना हमारा कहां तक सहारा
यही जानने की कसर रह गई......
नदियों सा निर्मल बसा प्यार था जो..
छिछली सी मैली नहर रह गई.....
दिखता नहीं है नजरों से कुछ भी...
नया इश्क करने की लत गई.....!
खुद से भी ज्यादा चाहत थी जिसकी
वहीं बेवफाई का खत लिख गई..
~ मोहन त्रिपाठी
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2 months ago
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