पूनम के इस चाँद ने,
आकर्षण की सीमाएं पार कर
यूँ सेंध लगाई इस धरा की,
गहरी काली परतों में।
इस शीत रात्रि की निःशब्दता ,
के सौंदर्य को बढ़ाती,
कवियों की कल्पनाओं से,
कहीं आगे निकल भागती,
इस पूनम के चाँद की यह,
निर्मल शीतल चाँदनी।
पता नहीं कितने हृदयों को,
वेदना देती हुई,
पता नहीं कितने आहों को,
सांत्वना देती हुई,
अपने प्रियतम से दूर जाती ,
पूनम की यह चांदनी।
सदियों से हर कल्पना का,
आधार बना यह चंद्रमा,
इस विशाल अम्बर में रोशन,
क्यों है यूँ मौन खड़ा ?
क्या उसको भी घायल करती,
उसकी अपनी चाँदनी ?
प्रस्फुटित हुई इसके भी,
हर रोम रोम से प्रेम धारा,
अनुभूति में भीग जिसकी,
मधुर मुस्कान है इस पर छायी
और फिर प्रेम में बरसायी,
यह पूनम की चाँदनी।
इस निर्झर प्रेम धारा में,
हर हृदय को प्रफुल्लित कर,
छुपाये अपनी हर शिकन,
इस चन्द्रमा का आहत मन
मौन दर्शक बन देख रहा,
अपनी बहती चाँदनी।
रवि का ही प्रतिबिम्ब है,
जिसे वह अपना कहता है,
उसके आवागमन में वो,
बस यूँ ही खिलता रहता है,
क्या कभी ठहरेगी उस पर,
उसकी अपनी चांदनी?
क्यों अपने कृष्ण पक्ष में,
वो एकाकी हो जाता है?
क्यूँ उसका सिर्फ एक सिरा ही,
उसकी पहचान बनाता है?
कहाँ चली जाती है तब,
यह उसकी प्रिय संगिनी?
अपनी इस विकलता में ही,
फिर प्रसन्नचित हो उठता,
शुक्ल पक्ष में जाते जाते,
है उसी कल्पना में डूबता,
फिर मिलना होगा उस से,
जो है अपनी चांदनी।
-
हमें विश्वास है कि हमारे पाठक स्वरचित रचनाएं ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे इस सम्मानित पाठक का भी दावा है कि यह रचना स्वरचित है।
आपकी रचनात्मकता को अमर उजाला काव्य देगा नया मुक़ाम, रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें।