जब कलियां कुचली जाती हैं,
कोमलता रौंदी जाती है
नवरंग कहां से पाऊं मैं?
जब शब्द शब्द हैं मौन पड़े
जब अर्थ विकल हो रोते हैं
तो गीत कहां से गाऊं मैं?
जो प्रेमगीत रच देते हैं
चिर-दावानल में भी जब-तब
वह हृदय कहां से लाऊं मैं?
हां, बहुत व्यथा है, रिसता है
मन टूटे पंकपात्र जैसा
फिर कैसे दर्द छिपाऊं मैं?
तुम लड़ लो, युद्ध के आदी हो
मैं करुणा की एक वीत-राग
तुम जैसी क्यों हो जाऊं मैं?
-
हमें विश्वास है कि हमारे पाठक स्वरचित रचनाएं ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे इस सम्मानित पाठक का भी दावा है कि यह रचना स्वरचित है।
आपकी रचनात्मकता को अमर उजाला काव्य देगा नया मुक़ाम, रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें।