जिनके आगे सब नतमस्तक थे
जो सबको थे शिरोधार्य
पितामह और राजगुरु थे
भीष्म और द्रौणाचार्य
उनके कुछ निर्णय थे ऐसे
नहीं हो सकते स्वीकार्य
गुरु की लघुता ने मेधावी को
शिष्यत्व से वंचित किया था
महालघुता ने वह छीन लिया,
जो शिष्य ने संचित किया था
गुरु द्रोण ने अपनी द्क्षिणा में
जब एकलव्य का अंगूठा ले लिया
आत्मा ने अवश्य धिक्कारा होगा,
वाणी भी कुछ काँपी होगी
मान और धन के सुख की चादर
गुरु ने तब झाँपी होगी
जब धर्म था अर्जुन के हेतु
आशीर्वचन को पालना
कथित धर्म में सहा होगा तब,
आत्मा का सालना
अन्तःकरण की सुनते तो
शुभ होते सब कार्य
पर उनके निर्णय थे ऐसे
नहीं हो सकते स्वीकार्य
राजधर्म के पथ पर चलते
ऐसा काम पितामह कर गये
वधू की अस्मिता लुटी देख भी
पुरखे नींव मौन की धर गये
वृद्ध तनु में विमल आत्मा
पितामह जीते-जी ही मर गये
या वैभव में जीने के आदी ,
सुख-साधन छिनने से डर गये
तब हो या विज्ञान का युग अब ,
आत्मा कचोटती जरूर है
सत्ता के सुख से राजधर्म
तब था जैसा , वैसा ही
आज भी मजबूर है
विमल आत्मा ,
त्याग-तपस्या
परदुखकातर शूर है
मानवता का धर्म बड़ा है
पालन इसका है अनिवार्य
पर उनके निर्णय थे ऐसे
नहीं हो सकते स्वीकार्य
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