छाँव का पता नहीं
हँसने की कोई वजह नहीं ।
ले जाए जो कहीं
मिलते उसे वो रास्ते नहीं ।।
वो बैठी तन्हा तोड़ती पत्थर
भरी जेठ की दोपहरी में ।
अब तो बरस जा ऐ बादल
वो बैठी बार-बार कह रही ये ।।
माना बचपन से देखे उसने तपते दिन
माना बचपन से देखे उसने अँधेरी रातें ।
माना बचपन से देखे उसने वो आँखें
जो उसे नोच खाए
और माना बचपन से देखे उसने
फ़िर बुझते दीये ।।
फ़िर क्यों आज वो बैठी
हो रही उदास
फ़िर क्यों आज वो ढूँढ रही
हो कोई पास ।
फ़िर क्यों आज वो बैठी
ये सब सोच रही
जब उसने अपनी ज़िन्दगी
है जिया कुछ ऐसे ही ।।
वो बैठी तन्हा तोड़ती पत्थर
भरी जेठ की दोपहरी में ।
आए तो कोई मदद को
वो बैठी बार-बार कह रही ये ।।
जिसका है कोई नहीं
उसका होता है ख़ुदा ।
बातें अक्सर ऐसी हीं
उसने कईयों दफ़ा है सुना ।।
आख़िर होता है कैसा ख़ुदा?
और क्यों कुछ उसकी सुनता नहीं?
हाँ ! कभी-कभी तो ये भी सोचती ―
क्या वो होता भी है
या है वो-भी महज़ एक ख़्याल हीं ?
सवाल ऐसे हज़ार उसके
जवाब जिसका किसी के पास नहीं ।
क्यों देखे उसने ऐसे मन्ज़र
वज़ह आख़िर क्या रही ?
वो बैठी तन्हा तोड़ती पत्थर
भरी जेठ की दोपहरी में ।
घन्टों पड़ी रही एक "शोषित-दलित-महिला" की लाश
अखबारों की सुर्खियां बार-बार कह रही ये ।।
उपरोक्त रचनाकार का दावा है कि ये उनकी स्वरचित कविता है।
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