ये आंसू जब निकलते हैं लबों की ओर चलते हैं
ज़रा सा पास आते हैं न जाने क्यों मचलते हैं
कहीं नादान ये आंसू तुम्हारी तरफ़ न जाएं
कि इसकी गर्म शिद्दत से हमारे गाल जलते हैं
ये आंसू दिल्लगी भी है ये आंसू आशिक़ी भी है
कि इन आंसू की चौखट पर ही सारे ज़ख्म पलते हैं
हमारी बेगुनाही की गवाही देते हैं आंसू
सदाएं जब निकलती हैं तो ये फौरन निकलते हैं
हमारी ज़िंदगी भी कम है अब आंसू बहाने को
हमीद आंसुओं की वजह से ही अब फूल खिलते हैं
-
हमें विश्वास है कि हमारे पाठक स्वरचित रचनाएं ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे इस सम्मानित पाठक का भी दावा है कि यह रचना स्वरचित है।
आपकी रचनात्मकता को अमर उजाला काव्य देगा नया मुक़ाम, रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें।