आज न जाने क्यूं हमें शायद जननी के असीम त्याग का भान न रहा,
मां की ममता व बहनों की राखी का तनिक भी मान न रहा.
मूकदर्शक बने रहते हैं हम अनिष्ट देखकर भी सरेआम खुले बाजारों में,
जागता नहीं अब पुरुषार्थ हमारा देखकर कर भी निर्बला की सजल आंखों में.
हां आज नए सिरे से हमें उलझे रिश्ते की धागों को बुनना होगा.
मां भवानी के संतान हम अब दुष्ट दानवों से तो निपटना ही होगा..
भटक गए शायद हम अपनी संस्कृति के आदर्श राहों से,
नाता जोड़ लिया धर्म व सम्प्रदाय के झूठे फसादों से.
न जाने क्यूं भ्रामक आस्था में उलझकर हमें मानवता का विश्वास न रहा,
आभासी देशभक्ति के अंधेरों से घिरकर भाई को भाई का एहसास न रहा.
हां अब मानवता के आदर्शों का अवलम्बन कर हमें दायित्वों का निर्वहन करना होगा,
गांधी और भावे के वंशज हम सत्य व अहिंसा के पथ का अनुसरण तो करना ही होगा..
घिर ही गए हम शायद ऊंच-नीच के संकीर्ण विचारों से,
बंध ही गए पाश्विक स्वार्थ और छल-प्रपंच की जंजीरों से.
न जाने क्यूं अब दीन-हीन की मार्मिक चीखें सुन हम बहरे बन जाते हैं,
किसी को तड़पता देखकर भी क्यूं नहीं मानवता का फ़र्ज निभाते हैं.
हां अब बेसहारों का सहारे के लिए मसीहा बन ही जाना होगा,
परमात्मा के अंश हम क्षमा दया व त्याग का आलिंगन अब करना ही होगा.
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