कल रात शिव जी से मुलाकात हो गई
कुछ मैंने कहा कुछ उनकी बात हो गई.
मैंने हाल चाल पूछा
तो मुस्कुरा कर ठिठक गए
मुंह से कुछ कहा नहीं
बस सिर थाम कर रह गए.
‘क्या कोई परेशानी है’
बहुत जोर दिया मैंने तो बोले,
‘तुम इंसानों की ही नादानी है
जाने कहां से पढ़ सुन लिया है
मुझे नशेड़ी घोषित कर दिया है.’
बात तो गलत न थी
सुनकर मैं क्या कहती !
मुझे चुप देखा तो शिव जी आगे बोले
हृदय के अपने सब विराग खोले -
‘खुद तो रोज अलग – अलग
रसोई बना कर खाते हो
और मुझ भोले भंडारी को
बस दूध ही दूध चढ़ाते हो
बेल पत्ते और धतूरा
क्या यही मेरा खाना है
सर्दी और बारिश में भी
ठंडे पानी से नहलाते हो.
एक ही खाना रोज मिले
तो क्या तुम खा पाओगे
सर्दी में कई बार नहाकर देखो
कांप कांपकर ही मर जाओगे.
मुझको अपना बाबा कह कर
मनगढंत स्वांग रचाते हो
कब तुमने मुझे देखा पीते
मिथ्या आरोप लगाते हो.
माता पिता और बंधु सखा
जाने क्या - क्या कह जाते हो
पाठ खत्म हुआ नहीं कि फिर
और नजर नहीं तुम आते हो.
कभी ये चाहिए कभी वो चाहिए
तुम इंसानों की सूची लम्बी है
पर कभी गलती से भी सोचा है
कि मुझको कब और क्या चाहिए.
मेरा भी मन करता है
तुम इंसानों के साथ रहूं
और तुम हो जो मुझको
मंदिर में बंद कर आते हो.
चाह नहीं मुझे इन विधानों की
बेमतलब के इन संधानों की
मुझसे लेकर फिर आडम्बर करके
मुझको ही चढ़ाते हो
मुझको या फिर खुद को
जाने किसको तुम भरमाते हो.
कान खोलकर सुन लो सब
अंतिम बार चेताता हूं
फिर न मुझसे कहने आना
क्यों तेरे काम न आता हूं.
इस बार कभी मिलने जब आना
भेंट कुछ भी संग न लाना
साथ मुझको रख सकते हो
तो ही चौखट पर शीश नवाना.
मैं तुम सबका पिता सखा हूंं
हरदम तेरे साथ रहूंगा
थक गया हूं दीवारों से
पिंजड़े में न और रहूंगा.
रख सकते हो साथ में मुझको
तो ही अब मुझसे मिलने आना
चिकनी चुपड़ी बातों में
न मुझको अब और फंसाना.
अंतिम बात कहकर मैं
आज यहां से जाता हूँ
मंदिर मेरा घर नहीं
न मंदिर में मुझको छोड़ के आना.
मंदिर मेरा घर नहीं
न मंदिर में मुझको छोड़ के आना'.
- एकता बृजेश गिरि
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