जिंदगी प्रतिदिन और उलझती जा रही,
जरूरतें इंसान को भी पीसती जा रही ।
मंहगाई आग की तरह हर रोज बढ़ रही
बुझाने की कोई तरकीब नहीं आ रही ।
इश्क मोहब्बत और हुश्न की सारी बातें
किताबों से,हकीकत में कहाँ आ रही ।
जवानी इंतजार और तैयारी में गुजरती
नौकरी हर एक के हिस्से नहीं आ रही।
आँखें मां बाप की अब पत्थर होकर
औलाद की बेवशी पर बस ताक रहीं।
- दिनेश चौहान
- हम उम्मीद करते हैं कि यह पाठक की स्वरचित रचना है। अपनी रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें।
कमेंट
कमेंट X