आज फिर मेरे होंठों पे उसका नाम आ गया
आज फिर मेरे हाथों में जाम आ गया
जो ख़ता मेरी थी नहीं जो ख़ता मैंने की नहीं
उस ख़ता का क्यों मेरे सर इल्ज़ाम आ गया
बेवफा कुछ तो बोल दरीचा-ए-शबिस्तां तो खोल
देख तेरे दर पर फिर तेरा गुलाम आ गया
अब न हिज्र में जिया जाए न ही जहर पीया जाए
'नामचीन' मुहब्बत में ये कैसा मुकाम आ गया
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