सब कुछ आसान था जब मैं नादान था
बस थोड़ी सी ही तो पिता की डांट थी
पर मां का अथाह दुलार था
लगता सब आसान था
यार बचपन ही खास था
रात भर सोना सुबह देर से उठना
बस स्कूल ही जाना था
उसमें भी बहाना था
यारों की बस्ती में
अपनी मौज मस्ती में
कुबेर का खजाना भी बेकार था
सब कुछ आसान था जब मैं नादान था।।
पिता की बेचैनी अब समझ में आ रही
जब जिंदगी दर-दर ठोकर खा रही
आज एक रुपए की अहमियत
समझ में आ रही
सफेद हुए बाल मौत मुझे खा रही
सब कुछ आसान था जब मैं नादान था।।
जिंदगी आसान नहीं रही
बात बचपन वाली अब कहां रही
रात हो या दिन इंतहान हर पल यहां
यह मुश्किल का है दौर
अब पूर्ण विराम कहां
सब कुछ आसान था जब मैं नादान था।।
(अनुज कलम)
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