आशीष कुमार सिंह
(प्र.स्ना.शिक्षक ‘संस्कृत’)
केन्द्रीय विद्यालय संगठन
‘हाय री सर्दी’
हाय वो कंपकंपाती सर्दी का मौसम,
ठिठुरती हड्डी और उस पर पछुआ पवन |
बड़े-बूढ़े क्या बच्चे भी रहते परेशान,
बड़ी मुश्किल से करते यदा-कदा स्नान |
बहुत कष्टकारक है ये पौष-माघ का महीना,
भगवान भास्कर को भी पड़ता है सर झुकाना |
पशु-पक्षी भी अपने आशियाने में दुबक जाते,
पेड़-पौधे भी कोहरे की मार से अकड़ जाते |
दिन में भी कभी-कभी लगता है अन्धकार,
रजाई-कम्बल लेकर लोग करने लगते हैं वन्दनवार |
दांते ऐसे किट-किटाते जैसे रीछ-वानर,
नदी-नाले जम जाते जैसे बर्फ़ का अम्बर |
छा जाता चारों ओर कुहासों का राज्य,
दृष्टि ओझल हो जाती नहीं दिखता मार्ग |
रेल हो या मोटर या फिर हो वायुयान,
रेंगते हैं ऐसे जैसे हो निष्काम |
सुबह-शाम अलाव घेरे रहते ग्रामीण,
दोपहर में धूप सेंकते रहते शौक़ीन |
शाम होते-होते पसर जाता सन्नाटा,
लोगों को रह जाता स्वेटर-चादर से नाता |
मोती-सी ओस की बूँदें सूर्यकिरणों से चमकदार,
गेंदा-गुलाब और गुलदावदी से महकता है संसार |
चारों ओर रहता शाक-सब्जियों का अम्बार,
फ़िर भी बढ़ता रहता सर्दी का पारावार |
पर शरद की चांदनी का नहीं है कोई जोड़,
और जब साथ हो पिया का तो हो जाता है बेजोड़ |
रजाई के अन्दर का वो गर्म-गर्म मंजर,
साँसों को उष्ण करता वो तिलस्मी हमसफ़र |
- हमें विश्वास है कि हमारे पाठक स्वरचित रचनाएं ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे इस सम्मानित पाठक का भी दावा है कि यह रचना स्वरचित है।
आपकी रचनात्मकता को अमर उजाला काव्य देगा नया मुक़ाम, रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें