होकर गई मुहब्बत बेज़ार मेरे दर से
मारे शरम के हम भी निकले न अपने घर से...
फिर बुझ गया सुबह से दिल मेरा मेरे घर में
फिर हो गई है घर मे इक शाम अब सहर से...
हर दर्द के सफ़र में दिलबर इलाज-ए-ग़म है
कटता नहीं हमारा नाला-ए-दिल ज़हर से...
क्या दैर, क्या हरम, क्या दर शैख बरहमन की
जाते नहीं कहीं हम अब यार के शहर से...
कुछ यूं गुजर रही है इस दौर में मुहब्बत
अब बह रहा है इस में खूं आप चश्म-ए-तर से...
दीदार-ए-यार ख़ातिर भूला हूँ दर ख़ुदा की
मैं हो गया हूँ काफ़िर दुनिया में इस ख़बर से...
इक बार तुम मिले थे इक भीड़ में कहीं पर
तस्वीर अब तुम्हारी हटती नही नज़र से...
ख़्वाब-ए-फ़िराक़-ए-यारा मंज़ूर अब नहीं है
कह दो निगाह-ए-दिन से औ रात के जिगर से...
पैहम यहां चले तो हासिल हुआ ठिकाना
मिलती नहीं है मंज़िल आसान से सफ़र से...
यायावरी हमारी कर दे न दूर उन को
कूचा-ए-यार घर है इस बात की फ़िकर से...
क्या बात थी कि रौशन उस का मकां नहीं था
सोया नहीं मुसलसल मैं यां कई पहर से..
-अमित_अब्र
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