अगर कोई व्यक्ति आपके शहर या देश का ना भी हो लेकिन अगर वह आपकी भाषा बोल रहा हो तो उससे वही अपनापन महसूस होगा जो अपने प्रदेश के किसी व्यक्ति से महसूस होता है। इस प्रकार भाषा भूगोल की सभी सीमाओं को मिटाते हुए अपनाईयत के रिश्ते स्थापित करती है।
रीतिकाल के रीतिमुक्त कवि घनानंद ब्रज भाषा में अपनी काव्य रचनाओं के कारण ब्रज के क्षेत्र से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। घनानंद का जन्म दिल्ली या आस-पास ही माना जाता है लेकिन दिल्ली ब्रज से यूं भी बहुत दूर नहीं है और बोली स्थान-विशेष की मोहताज नहीं होती। अपनी रचनाओं की विशिष्टताओं के कारण घनानंद ब्रज क्षेत्र से सीधे संबंधित ना होकर भी ब्रज के एक महत्वपूर्ण कवि हैं।
कला हमेशा ही प्रेम का आलिंगन करना चाहती है
कला हमेशा ही प्रेम का आलिंगन करना चाहती है इसलिए एक बड़ा कलाकार सदैव एक बड़ा प्रेमी भी होगा, यह बात घनानंद के व्यक्तित्व को भी सीधे प्रभावित करती है। साहित्य अकादमी से प्रकाशित किताब ‘घनानन्द’ में लिखा है कि
घनानंद की कविता का समुचित मूल्यांकन केवल वही कर सकता है, जो स्वयं बहुत बड़ा प्रेमी हो, ब्रजभाषा में निपुण, सुन्दरता के भेदोपभेदों का पारखी हो, संयोग और वियोग की विभिन्न मनोदशाओं का आत्मानुभूति के स्तर पर ज्ञाता हो, प्रेम के रंग से जिसका ह्रदय सराबोर हो। इन सभी विशेषताओं के कारण घनानन्द एक स्वछन्द प्रेमी-कलाकार के रूप में हमारे सामने आते हैं।
घनानन्द के विषय में उनके कवि-मित्र एवं प्रशस्तिकार ब्रजनाथ के लिखे कुछ अंश
बिनती कर जोरि कै बात कहौं जौ सुनौ मन कान दै हेत सों जू
कविता घनआनन्द की न सुनौ पहचान नहीं उहि खेत सों जू
जग की कविताई के धोख़े रहै ह्यां प्रबीनन की मति जाति जकी
समुझै कविता घनआनन्द की हिय आंखिन नेह की पीर तकी
झलकै अति सुन्दर आनन गौर, छके दृग राजत काननि छ्वै
हँसि बोलनि मैं छबि फूलन की बरषा, उर ऊपर जाति है ह्वै
लट लोल कपोल कलोल करैं, कल कंठ बनी जलजावलि द्वै
अंग अंग तरंग उठै दुति की, परिहे मनौ रूप अबै धर च्वै
भोर तें साँझ लौ कानन ओर निहारति बावरी नेकु न हारति
साँझ तें भोर लौं तारनि ताकिबो तारनि सों इकतार न टारति
जौ कहूँ भावतो दीठि परै घनआनँद आँसुनि औसर गारति
मोहन-सोहन जोहन की लगियै रहै आँखिन के उर आरति
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कला हमेशा ही प्रेम का आलिंगन करना चाहती है
4 वर्ष पहले
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