पैंतीस साल पहले के मेरठ को याद कीजिए। हर तरफ आग की लपटें, चीख पुकार, दंगे का वो खौफ़नाक मंज़र जिसने पूरे शहर को तकरीबन 6 महीनों तक कर्फ़्यू के सन्नाटे और दहशत में जीने को मजबूर कर दिया। मलियाना और हाशिमपुरा इतने सालों के बाद भी उस दौर को यादकर सिहर उठते हैं। शास्त्रीनगर, बेगमपुल, जलीकोठी, घंटाघर... कितने इलाक़ों को याद करूं। हर तरफ खौफ़ का आलम।
पागल और वहशी दंगाइयों को बस क़ौम नज़र आ रही थी, इंसान नहीं। शहर का संभ्रांत इलाक़ा माना जाने वाला शास्त्रीनगर जल रहा था और यहीं जल रहा था एक ऐसे शायर का आशियाना जिसने बड़ी मशक़्क़त और जद्दोजहद के साथ इसे बनाया था। उसकी शायरी बरसों से लोगों में मोहब्बत भरती रही, लेकिन नफ़रत के शोलों ने मोहब्बत के इस शायर को कुछ ऐसा लिखने को मजबूर कर दिया -
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में
बशीर बद्र की शायरी तब हर किसी की ज़ुबान पर होती थी। मेरठ को इस बात का फ़ख्र था कि बशीर साहब इस शहर में रहते हैं। यहां की हर महफ़िल बशीर साहब के बग़ैर अधूरी रहती। लेकिन उस भयानक दौर में अपने भी पराये हो गए। न कोई पड़ोस रहा, न कोई रहनुमा रहा। एक तरक़्क़ीपसंद और मोहब्बत का शायर बेघर हो गया। बेग़म राहत और नन्हें बेटे नुसरत के साथ बशीर साहब एक परिचित के गैराज में रहने को मजबूर हो गए। नफ़रत के इस आलम से आहत बशीर साहब को अब ये शहर भी अजनबी सा लगने लगा। उन्होंने लिखा -
कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है, जरा फ़ासले से मिला करो
अमर उजाला का मेरठ में यह शुरूआती दौर था। हमसब महीनों तक मोहकमपुर के अपने ऑफिस में रात गुज़ारते। छत पर रातभर चीत्कार सुनाई देती, बम बम भोले और जय श्रीराम के नारे गूंजते, दूर से आग की लपटें नज़र आतीं और कई बार देर रात लाशों के जलने की बदबू माहौल में घुल जाती। देश विदेश के पत्रकार दंगा कवर करने मेरठ आते तो अमर उजाला का दफ़्तर उनके लिए सबसे मददगार जगह साबित होता।
हमारी सच्ची और बेबाक रिपोर्टिंग के चर्चे दूर-दूर तक थे और पीएसी के आतंक का ख़ुलासा करने के साथ-साथ अमर उजाला ने जिस तरह की स्पॉट रिपोर्टिंग का नमूना पेश किया था, उससे अख़बार की साख जम गई थी। हर तरफ लोग अमर उजाला ढूंढते थे। बशीर साहब के बारे में भी हमने खूब छापा। उसी दौरान उनसे मिलने उस गैराजनुमा घर में भी गया जहां बशीर साहब एक कुर्सी पर हताश और खोये-खोये से बैठे थे।
अमर उजाला वह भी पढ़ते थे और उन्होंने तभी हमें ये लाइनें भी सुनाईं जिनका ज़िक्र हमने ऊपर किया है। वो टूटे हुए थे लेकिन हताश नहीं थे। उन्होंने तब कहा था कि फ़िरक़ापरस्त ताक़तें चंद वक़्त की मेहमान हैं, ये जुनून, ये नफ़रत का आलम जैसे आया है वैसे ही गुज़र जाएगा। लेकिन वे इस कदर आहत थे मानो उनके भीतर किसी ने बहुत गहरा ज़ख्म दिया हो।
कहने वाले दो मिसरों में सारा किस्सा कहते हैं
बशीर बद्र बेटे और पत्नी के साथPC: bashirbadr.com
जिस बशीर बद्र की पैदाइश 15 फरवरी 1936 को राम की नगरी अयोध्या में हुई हो, बचपन कानपुर में गुज़रा हो, पढ़ाई अलीगढ़ में हुई हो, जिस बशीर बद्र ने बचपन में आज़ादी के दीवानों को देखा, तरक़्क़ीपसंद शायरों के साथ रहे और विभाजन का दर्द देखा, उसके लिए आज़ादी के 40 बरस बाद एक बार फिर वैसा ही मंज़र देखना किसी सदमे से कम नहीं था। फिर भी उन्होंने इसे कुछ इस तरह बयान किया -
दुश्मनी जम के करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिंदा न हों
ये लाइनें बशीर साहब ने मुल्क के बंटवारे के बाद लिखी थीं जिसे 1972 के शिमला समझौते के दौरान ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने इंदिरा जी को सुनाया था। लेकिन मेरठ के वाक़ये के बाद भी ये लाइनें उनकी ज़बान पर थीं। इस शहर ने फिर बशीर साहब को ख़ुद से दूर कर दिया। लेकिन इस शायर के भीतर मोहब्बत की शायरी का जज़्बा बरक़रार रहा।
मेरठ के ढाई कमरों के अपने मकान के जल जाने के बाद बशीर साहब भोपाल में बस गए। भोपाल के ईदगाह हिल्स में अब वो एक 12 कमरों की बड़ी सी हवेली में रहते हैं। उनके बेटे नुसरत बद्र बचपन से ही अपने वालिद के नक़्शेक़दम पर हैं। फ़िल्मों में गीत लिखते हैं। संजय लीला भंसाली की देवदास में नुसरत के सारे गीत इतने हिट हुए कि उनकी ज़िंदगी बन गई। लेकिन देवदास के बाद उन्हें ज़्यादा काम नहीं मिल पा रहा है। हां, देश-विदेश के तमाम मुशायरों में वो अपनी नज़्में औऱ शेरो शायरी सुनाया करते हैं। ज़्यादातर वक़्त वो अब अस्सी पार कर चुके अपने वालिद के साथ गुज़ारना पसंद करते हैं। बशीर साहब बीमार रहने लगे हैं, भूलने लगे हैं, ठीक तरह से बोल नहीं पाते, उनकी बेग़म राहत बद्र उन्हें उनके शेर याद दिलाती रहती हैं।
लेकिन 1987 में मेरठ के उस तनाव भरे माहौल में भी बशीर साहब ने शायरी के बारे में और ख़ासकर अपनी शायरी के बारे में जब बोलना शुरू किया तो दो-दो मिसरों में कई कहानियां कह गए। उनका मानना है कि ग़ज़ल के लिए दो मिसरे ही काफी होते हैं और इसकी ख़ासियत ही यही है कि आप दो मिसरों में सारा किस्सा बयान कर दें। इसके लिए वो कुछ इस तरह चुटकी लेते हैं -
कहने वाले दो मिसरों में सारा किस्सा कहते हैं
नाच नहीं आता जिनको वो आंगन टेढ़ा कहते हैं
बद्र सरल और सादा ज़बान इस्तेमाल करते हैं
बशीर साहब की भाषा में वो रवानगी मिलती है जो बड़े-बड़े शायरों में नहीं मिलती। उनका हमेशा मानना रहा है कि अरबी, फारसी और उर्दू के लफ़्ज़ों के इस्तेमाल भर से शायरी नहीं बनती। ज़मीन से उगी हुई ज़बान में ग़ज़ल पसंद की जाती है। जो लोगों के ज़हन में उतर जाए वो ग़ज़ल होती है।
बशीर साहब कहते हैं मीर तक़ी मीर ग़ज़ल के ख़ुदा कहे जाते हैं, उन्होंने 18 हज़ार से ज़्यादा शेर लिखे लेकिन लोगों को याद बमुश्किल 70-72 ही हैं। ग़ालिब के 1400 शेरों में लोगों को याद 14-15 हैं, बाकियों के तो एकाध शेर ही उन्हें मशहूर बना गए। पर बशीर साहब के नए-नए शेर आज भी बड़े-बड़े ग़ज़ल गायक गाना पसंद करते हैं। उनके दो लाइन के मिसरे गायकों को और सुनने वालों के दिल में उतर जाते हैं। जगजीत सिंह ने एक इंटरव्यू में कहा था कि डॉ. बद्र सीधे शब्दों में लिखते हैं, सरल और सादा ज़बान इस्तेमाल करते हैं, इसलिए उनके शेरों को धुनों में बांधना और डूबकर गाना अच्छा लगता है।
बेशक डॉ. बशीर बद्र का फ़लक बहुत बड़ा है। वो ख़ुद को तरक़्क़ीपसंद शायर कहलाना पसंद नहीं करते और हमेशा मोहब्बत के शायर ही रहना चाहते हैं। क्योंकि वो मानते हैं कि जहां मोहब्बत है, वहीं तरक़्क़ी है – चाहे इंसान का हो, चाहे समाज का।
चलते चलते बशीर साहब के अल्फ़ाज़ों के कुछ नमूने देखिए -
मुझे तुमसे मोहब्बत हो गई है
ये दुनिया ख़ूबसूरत हो गई है
मुझसे बिछड़ के ख़ुश रहते हो
मेरी तरह तुम भी झूठे हो
ये फूल कोई हमको विरासत में मिले हैं
तुमने मेरा कांटों भरा बिस्तर नहीं देखा
कुछ तो मजबूरियां रही होंगी
यूं कोई बेवफ़ा नहीं होता
मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं,
हाय मौसम की तरह दोस्त बदल जाते हैं
हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा
एक दिन तुझसे मिलनें ज़रूर आऊंगा
ज़िन्दगी मुझको तेरा पता चाहिये
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाये
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कहने वाले दो मिसरों में सारा किस्सा कहते हैं
1 month ago
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