कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं
ज़िंदगी तू ने तो धोके पे दिया है धोका
फ़िराक़ गोरखपुरी एक ऐसे शायर थे जिन्होंने अपनी शायरी और अपने अलहदा अंदाज़ से हर उम्र के लोगों को अपना मुरीद बनाया है। उनकी शायरी और उनके अलमस्त मिज़ाज के बारे में बातचीत होना मानो कन्नौज से आए हुए, सबसे मंहगे लाखों रुपये किलो वाले किसी इत्र का भरी महफ़िल में खुल जाना है। ऐसे अंदाज़ और ऐसे मिज़ाज की ख़ुशबू से जुदा होना बेहद मुश्किल है।
ये फ़िराक़ साहब के जीवन की हक़ीक़त बयानी ही है, उनका भोगा हुआ सच है जो वे कहते हैं कि आदमी को आखिरी उम्मीद मौत से ही है, ये ज़िन्दगी तो हर तरह से फ़रेब करती है, धोका देती है, ख़्वाबों को तोड़ती है। जीवन की हक़ीक़त को लिखना इस ख़ुदरंग शायर का ख़ास अंदाज़ था जो उन्हें उर्दू शायरी की दुनिया में कई शायरों से अलग ला खड़ा करता है।
न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद
मगर हमें तो तिरा इंतिज़ार करना था
फ़िराक़ साहब ने जिस रास्ते को चुना वो जिस तरह तेज तूफ़ानों के खिलाफ़ चलते हुए शायरी की ज़मीन तक पहुंचे। इस यात्रा से सबसे ज़्यादा जिसको फ़ायदा हुआ वो ख़ुद उर्दू शायरी है। ये बात किसी भी तरह से नज़रअंदाज़ नहीं की जा सकती कि उर्दू शायरी के लम्बे इंतज़ार का परिणाम ही था की उसे फ़िराक़ जैसे युग निर्माता शायर का साथ मिला।
शायरी की दुनिया में रोशनी लेकर चलते हुए शायर फ़िराक़ ने उर्दू शायरी की उन ज़रूरी जगहों को नुमाया किया जिसे बदलने, सुधारने या जिसमें नयेपन की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी। साहित्य की हर विधा में कुछ वक़्त बाद चीजों का दोहराव होता है। ऐसे में नयापन लाना साहित्य को ठहरने से रोकने की सबसे ज़रूरी ख़ुराक है। फ़िराक़ साहब की शायरी ने नई शायरी के प्रवाह से उर्दू ग़ज़ल को ऐसे ही गैर-ज़रूरी दोहराव से बचाते हुए नए क्षितिज पर ला खड़ा किया।
आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो
जब भी उन को ध्यान आएगा तुम ने 'फ़िराक़' को देखा है
फ़िराक़ साहब का जन्म 28 अगस्त 1896 ई. को गोरखपुर में हुआ और इसके आगे की यात्रा में उन्होंने अपने जीवन में बहुत कुछ खोया। ऊपर कहे गए शेर को पढ़कर कई आलोचक या आम पाठक भी कुछ वक़्त के लिए उनको आत्ममुग्ध शायर कह सकते हैं। लेकिन उनके जीवन को देखने वाला या हमारी पीढ़ी में वो लोग जिन्होंने उनके जीवन से जुड़े किस्से पढ़े या सुने हैं वो फ़िराक़ साहब को 20वीं सदी का अद्वितीय कलमकार कहेंगे जिसने शायरी को एक नए ऊंचे मुक़ाम तक पहुंचाया। फ़िराक़ साहब को देख न पाने का मलाल उनके नए पाठकों को ज़रूर होता होगा लेकिन उनको पढ़ पाने और उनको जान पाने का सुकून इस मलाल को ख़त्म कर फख्र में भी बदल देने के काफ़ी है।
शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास
दिल को कई कहानियाँ याद सी आ के रह गईं
रघुपति सहाय फ़िराक़ या कहें फ़िराक़ गोरखपुरी जो गंगा-जमुनी तहज़ीब का सबसे मुकम्मल उदहारण हैं। जिनकी अज़ीम शख़्सियत को जोश मलीहाबादी ने हिंदू सामईन के माथे का टीका, उर्दू ज़बान की आबरूं और शायरी की मांग का सिंदूर कहा है। शायरी का ये हरफ़नमौला कलमकार अपने जवाबों से सामने वाले को चुप करने में भी माहिर था, हाज़िरजवाबी में उनका कोई सानी नहीं था। निजी जीवन में बेढंगेपन का उदाहरण होना, चाय का शौक़ीन होना, हास्य-व्यंग के साथ-साथ उठने-बैठने वाला होना, ऐसा शायर शायद की उर्दू साहित्य में हुआ था या कभी होगा। ऐसा कुछ नहीं था जिसमें फ़िराक़ साहब को कोई उनके समय में पीछे कर पाया हो।
उनसे जुड़े कई संस्मरण हैं जो अलहदा हैं और जिसे पढ़ने का अपना ही आनंद है। ये मज़ेदार किस्से उनके अलहदा जीवन का बयान हैं। ऐसा ही एक किस्सा पेश है जिसमें फ़िराक़ साहब आत्मकथा लिखने की फ़रमाइश पर भड़क उठे थे।
ख़ुद-नविश्त (आत्मकथा) की फ़रमाइश पर जब भड़क उठे थे फ़िराक़ साहब
फ़िराक़ साहब को घर के बाहर पूछने वाले लोग खूब थे। लेकिन घर के अंदर वो बहुत अकेले थे। घर आते ही उनको पूछने वाला कोई न था। इसी उदासी और अकेलेपन के साथ जीना उनके लिए एकमात्र विकल्प था। इस बात को वो भी खूब समझते थे, उन्होंने इस अकेलेपन और उदासी को छुपाने की तमाम कोशिश भी की। उनकी इस कोशिश का एक मुकम्मल तरीका था अपने आसपास से जुड़ जाना। सुबह से शाम तक की धूप भी थी जिस पर हर पहर और हर घड़ी के साथ उन्होंने एक अलग रिश्ता बना लिया था।
एक बार ऐसे ही किसी ने उनसे ख़ुद-नविश्त (आत्मकथा) लिखने की फरमाइश की तो वह भड़क उठे। उन्होंने आजतक डायरी तो लिखी नहीं थी। इस बात पर उनका भड़कना तय था। फ़िराक़ साहब बोले "साहब यह ख़ुद-नविश्त लिखने का क्या मतलब है? आप की पोटली में है क्या जो दुनिया को दिखाएंगे? ख़ुद-नविश्त हो सकती है तो एक पोस्टमैन की, एक क्लर्क की या एक आम अनपढ़ इंसान की। हम आप क्या खाकर ख़ुद-नविश्त लिखेंगे। समझे आप ! दो कौड़ी के तजर्बे नहीं और चले हैं ख़ुद-नविश्त लिखने। बड़े तीस मार खां बने हैं। मुझसे यह फ्रॉड नहीं चल सकता ! यह जो कुछ मैं लिखता और कहता रहा हूं आखिर यह क्या है ? कभी सोचा आपने मैंने उम्र भर क्या झक मारी है। ख़ुद-नविश्त ! ख़ुद-नविश्त ! आखिर ये किस चिड़िया का नाम ? बताइए ! जवाब दीजिए !"
आत्मकथा को लेकर जो सवाल उनसे पूछा गया उसके जवाब में जो सवाल फ़िराक़ साहब ने किये उससे कई छुपे हुए जवाब सामने आए जिसने उनके मन के जवाब को सामने रख दिया था।
साभार - इन्तिख़ाब फ़िराक़ गोरखपुरी (रेख़्ता)
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2 years ago
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