कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तेरा।
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तेरा।
हम भी वहीं मौजूद थे, हम से भी सब पूछा किए,
हम हँस दिए, हम चुप रहे, मंज़ूर था परदा तेरा।
'कल चौदहवीं की रात थी...' इब्ने इंशा की इस ग़ज़ल को जब जगजीत सिंह ने अपनी संगमरमरी आवाज़ में गाया तो प्रेम रस में डुबकी लगाने वाले मदहोश हो गए। शायरी, ग़ज़ल, नज़्म, कविता, कहानी, नाटक, डायरी, यात्रा वृत्तांत, संस्मरण साहित्य की इन सब विधाओं में इब्ने इंशा ने अपने कौशल का लोहा मनवाया है।
इस शहर में किस से मिलें हम से तो छूटीं महफ़िलें
हर शख़्स तेरा नाम ले हर शख़्स दीवाना तिरा
कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जाएं मगर
जंगल तिरे पर्बत तिरे बस्ती तिरी सहरा तिरा
बेदर्द सुननी हो तो चल कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल
आशिक़ तिरा रुस्वा तिरा शाइर तिरा 'इंशा' तिरा
इब्ने इंशा उर्दू और हिंदी दोनों में ही बहुत सरल शब्दों में लिखते थे। उनकी एक नज़्म 'बस्ती में दीवाने आए' देखिए,
बस्ती में दीवाने आए
छब अपनी दिखलाने आए
देख देरे दर्शन के लोभी
करके लाख बहाने आए
पीत की रीत निभानी मुश्किल
पीत की रीत निभाने आए
उठ और खोल झरोखा गोरी
सब अपने-बेगाने आए
इब्ने इंशा का बचपन में नाम शेर मोहम्मद खां रखा गया था लेकिन किशोरावस्था में ही उन्होंने अपने आप को इब्ने इंशा कहना और लिखना शुरु कर दिया। भारत के जालंधर जिले के फिल्लौर तहसील में 15 जून 1927 को इंशा जी का जन्म हुआ। उनके पिता यहां राजस्थान से आए थे।
पंजाब यूनिवर्सिटी से 1946 में बी.ए. किया और भारत विभाजन के बाद वे कराची चले गए जहां से 1953 में उन्होंने एम.ए. किया। यहां उन्हें हबीबुल्लाह ग़ाज़नफ़र अमरोही, डॉ. ग़ुलाम मुस्तफ़ा ख़ान और डॉ. अब्दुल क़य्यूम जैसे बुद्धिजीवियों की संगत मिली।
शाम हुई परदेसी पंछी घर को भागे
दिल अपना हम खोल के रक्खें किसके आगे
राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित 'इब्ने इंशा की प्रतिनिधि कविताएं' पुस्तक की भूमिका में अब्दुल बिस्मिल्लाह लिखते हैं, "जीवन दर्शन और जीवन सौंदर्य के सामंजस्य से जो कविता फूटती है, वही असली कविता होती है। मगर दर्शन और सौंदर्य के अलावा कविता में जब रस और गंध भी हो तो वह किसी भी भी परिभाषा से परे हो जाती है।
वह सिर्फ़ कविता होती है जो तन में फुरफुरी और मन में द्वंद्व मचा देती है। हिंदी में 'कबीर' और 'निराला' तथा उर्दू में 'मीर' और 'नज़ीर' इसी तरह के कवि हैं। आगे चलकर हिंदी में 'नागर्जुन' और उर्दू में 'इब्ने इंशा' ने 'कबीर' और 'मीर' की परंपरा को ठीक उसी अंदाज़ में विकसित किया है।
अल्लाह करे मीर का जन्नत में मकां हो
मरहूम ने हर बात हमारी ही बयां की
'मीर', 'नज़ीर' और 'कबीर' की परंपरा का यह कवि उर्दू का निराला कवि है। इब्ने इंशा ने उर्दू शायरी के प्रचलित विन्यास को हाशिए में डाल दिया है और अपनी शायरी में नया सौंदर्य बोध पैदा किया है। यहीं कारण है कि इब्ने इंशा की कविताओं में मिट्टी की वह ख़ुशबू बसी हुई है जो आषाढ़ की पहली बारिश के बाद उठती है। सोंधी और जीवन को हरियाली से भर देने वाली ख़ुशबू।"
'उस आंगन का चांद' नज़्म को पढ़िए,
शाम समय इक ऊंची सीढ़ियोंवाले घर के आंगन में
चांद को उतरे देखा हमने, चांद भी कैसा? पूरा चांद
इंशी जी इन चाहने वाली, देखनेवाली आंखों ने
मुल्कों मुल्कों, शहरों-शहरों, कैसा-कैसा देखा चांद
इंशा जी दुनियावालों में बे-साथी बे-दोस्त रहे
जैसे तारों के झुरमुट में तन्हा चांद अकेला चांद
इंशा जी मूल रूप से बिंबों के कवि हैं और 'चांद' उनका प्रिय प्रतीक है। कहीं-कहीं उसके बिंबमय चित्र भी हैं। लेकिन उनकी शायरी का जो बहुत महत्वपूर्ण पहलू है, वह है सूक्ष्म प्रतिरोध। सूक्ष्म इसलिए क्योंकि इंशा जी बड़े अंदाज़ से ख़ामोशी में ज़बान पैदा करते हैं। उनका ये फ़न इन पंक्तियों में दिखता है,
गर्म आंसू और ठंडी आहें, मन में क्या-क्या मौसम हैं
इस बगिया के भेद न खोलो, सैर करो ख़ामोश रहो
आंखें मूंद किनारे बैठो, मन के रक्खो बंद किवाड़
इंशा जी लो धागा लो और लब सी लो ख़ामोश रहो
अब्दुल बिस्मिल्लाह इब्ने इंशा की इन पंक्तियों की तुलना फ़ैज अहमद फ़ैज़ की इन पंक्तियों से करते हैं,
निसार मैं तिरी गलियों पे ए वतन के जहां
चली है रस्म के कोई न सर उठा के चले।
बिस्मिल्लाह कहते हैं कि इस मुद्दे पर फ़ैज़ और इंशा दोनों का तंज एक जैसा है, फ़र्क बस इतना है कि फ़ैज़ के अंदाज़ में मुखरता है और इंशा के अंदाज़ में लालित्य। इंशा की ख़ूबी यह है कि बड़ी से बड़ी बात को वे बहुत भोलेपन के साथ कहते हैं और यही उनकी कविता का शिल्प है।
उनकी एक प्रसिद्ध कविता है 'यह बच्चा किसका बच्चा है', जिसमें उन्होंने एक ऐसे बच्चे को अपने काव्य का नायक बनाया है जिसके सर पर न तो टोपी है और न जिसके पास कोई खिलौना है। यह कविता अंत में एक ठोस जीवन दर्शन देती है,
इस जग में सबकुछ रब का है
जो रब का है, वो सबका है।
इब्ने इंशा पाकिस्तान के एक जानेमाने प्रगतिशील उर्दू कवि और स्तंभकार थे। अपनी कविताओं के अलावा उन्हें उर्दू के सबसे अच्छे व्यंगकारों में शुमार किया जाता है। उन्होंने पाकिस्तानी रेडियो, संस्कृति मंत्रालय और पाकिस्तान में राष्ट्रीय किताब घर में काम किया। यूनेस्को के प्रतिनिधि के तौर पर भी उन्होंने अपना योगदान दिया। इस दौरान उन्होंने दुनिया के कई देशों की यात्राएं कीं और उन्हें यात्रा वृतांत लिखने का मौका मिल पाया।
इंशा जी उर्दू कविता के पूरे जोगी है। वे लिखते हैं,
हम जंगल के जोगी हम को एक जगह आराम कहां
आज यहां कल और नगर में सुबह कहां और शाम कहां
दिल पे जो बीते सह लेते हैं अपनी ज़बां में कह लेते हैं
'इंशा'-जी हम लोग कहां और 'मीर' का रंग-ए-कलाम कहां
उन्होंने कई किताबें लिखीं जिनमें 'इस बस्ती के इस कूचे में', 'चांद नगर', 'बिल्लू का बस्ता', 'यह बच्चा किसका है' कविताएं प्रमुख हैं। 'आवारा गर्द की डायरी', 'दुनिया गोल है', 'नगरी-नगरी फिरे मुसाफ़िर' उनकी चर्चित यात्रावृतांत हैं।
इंशा जी की व्यंग की पुस्तक 'उर्दू की आख़िरी किताब' व्यंग का बेजोड़ नमूना है। इस किताब के अनुवादक अब्दुल बिस्मिल्लाह इस किताब की ख़ूबियों को इन शब्दों में बयां करते हैं, "इंशा के व्यंग्य में जिन बातों को लेकर चिढ़ दिखाई देती है वो छोटी मोटी चीज़ें नहीं हैं।
मसलन विभाजन, हिंदुस्तान पाकिस्तान की अवधारणा, मुस्लिम बादशाहों का शासन, आज़ादी का छद्म, शिक्षा व्यवस्था, थोथी नैतिकता, भ्रष्ट राजनीति आदि। अपनी सारी चिढ़ को वे बहुत गहन गंभीर ढंग से व्यंग्य में ढालते हैं ताकि पाठकों को लज़्ज़त भी मिले और लेखक की चिढ़ में वो ख़ुद को शामिल महसूस करे।"
11 जनवरी 1978 में उन्होंने लंदन में आख़िरी सांस ली। उन्हें कराची में दफ़नाया गया। उनकी यायावरी उनकी इन पंक्तियों में झलकती है,
'इंशा'-जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या
वहशी को सुकूं से क्या मतलब जोगी का नगर में ठिकाना क्या
उस हुस्न के सच्चे मोती को हम देख सकें पर छू न सकें
जिसे देख सकें पर छू न सकें वो दौलत क्या वो ख़ज़ाना क्या
जब शहर के लोग न रस्ता दें क्यूं बन में न जा बिसराम करे
दीवानों की सी न बात करे तो और करे दीवाना क्या
ग़ुलाम अली ने इब्ने इंशा की एक ग़ज़ल को अपनी पुरकशिश आवाज़ में पिरोया है,
ये बातें झूठी बातें हैं, ये लोगों ने फैलाई हैं
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई* हैं? (*पागल)
हैं लाखों रोग ज़माने में, क्यों इश्क़ है रुसवा बेचारा
हैं और भी वजहें वहशत की, इन्सान को रखतीं दुखियारा
हां बेकल-बेकल रहता है, हो प्रीत में जिसने दिल हारा
पर शाम से लेके सुबह तलक, यूं कौन फिरे है आवारा
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6 months ago
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