''हमें लगता है कि ज़बाने तहज़ीबों की होती हैं मज़हबों की नहीं, और जब तहज़ीबों की ज़ुबान होती है तो उसमें हिंदी, उर्दू, राजस्थानी, तेलगू, तमिल, मलयालम सब हमारी ज़बाने हैं।
संस्कृत में तालीम पाने के बाद उर्दू अदब अपनाने के चलते शुरुआत में थोड़ी बहुत दिक्कत हुई लेकिन आज मैं यह कहने की स्थिति में हूं कि मुझे हिंदू-मुसलमान दोनों का ख़ूब प्यार मिला।''
यह कहना था आधुनिक उर्दू शायरी के सशक्त हस्ताक्षर शीन क़ाफ निज़ाम का। दरअसल वो शिव कृष्ण बिस्सा से उर्दू में शीन काफ़ हुए और अपने शेरों, ग़ज़लों के माध्यम से लोगों को तहज़ीब, अमन और इंसानियत की सलाहियत देने लगे। निज़ाम साहब इस दौर के उन चुनिंदा शायरों में से हैं जिन्होंने मंच की गंभीरता को कभी हल्का नहीं होने दिया।
अपने अफ़्साने की शोहरत उसे मंज़ूर न थी
उस ने किरदार बदल कर मिरा क़िस्सा लिक्खा।
निज़ाम साहब अपनी पूरी रचनात्मकता में हिंदुस्तानियत के रंग से सराबोर नज़र आते हैं। निजा़म एक बेचैन रूह के शायर हैं। अपने आस-पास घट रही घटनाओं से बेचैन और परेशान होते हैं और इसीलिये वो कहते भी हैं कि- आपके संवेदना का संसार सुदृढ़ होना चाहिये, कोई भी सपना सच से बड़ा है। इस बात का जिक्र उन्होंने अपनी नज़्मों में भी कई जगह किया है। बतौर निज़ाम साहब-
सपना सच से इसलिये बड़ा है कि
सच की बदकिस्मती ये है
कि सच के पास कोई सपना नहीं है
सपना इसलिये खुशकिस्मत है
कि उसके पास अपना सच है
वो चाहे स्वप्न का ही सच ही क्यों न हो
अब तो अक्सर नज़र आ जाता है दिल आँखों में
अपनी इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि जो आदमी ख्वाबों की अहमियत नहीं जानता, तो माफ कीजिये ! ख़्वाब तो अंधा आदमी देखता है। इस तरह निज़ाम साहब गहरे एहसासों के शायर हैं। अगर उनके कलामों में बेचैनी है तो उम्मीद भी है, इसीलिए उनके मशविरे में सपने की अहमियत है।
अब तो अक्सर नज़र आ जाता है दिल आँखों में
मैं न कहता था कि पानी है दबाये रखिये।
कब से दरवाज़ों को दहलीज़ तरसती है निज़ाम
कब तलक गाल को कोहनी पे टिकाये रखिये।
उर्दू शायरी हमेशा से इशारे की शायरी रही है...
वर्तमान सियासी दौर में उर्दू शायरी के रास्ते और जिम्मेदारियों से संबंधित सवाल पर निज़ाम साहब फ़रमाते हैं कि- उर्दू हमेशा से इशारे की शायरी रही है, वो सारी बात इशारे में कहती है। और उर्दू शायरी ही क्या पूरी दुनिया की शायरी इशारे का आर्ट है।
जिसे छिपाना नहीं आता, वो बताएगा क्या। या यूं समझिये कि जिसे बताने की आदत पड़ गई हो उसे छिपाने का हुनर भी रखना चाहिए। 'अदब' बुनियादी तौर पर एक रहस्य है। जब वो और खुलते हैं तब इस बात को दूसरे ढंग से समझाते हैं कि- एक शब्द के इतने अर्थ क्यूं हैं?
क्या दिनकर वही है जो भास्कर है? ये दो कैफ़ियते हैं उनकी कि- दिन करने वाला सूरज और है, दोपहर में तपने वाला सूरज और है। एहसासों की गहराई में उतरते हुये वो लिखते हैं-
वो गुनगुनाते रास्ते ख़्वाबों के क्या हुए
वीराना क्यूं हैं बस्तियां बाशिंदे क्या हुए
वो जागती जबीनें कहां जा के सो गईं
वो बोलते बदन जो सिमटते थे क्या हुए
जिन से अंधेरी रातों में जल जाते थे दिए
कितने हसीन लोग थे क्या जाने क्या हुए
ख़ामोश क्यूं हो कोई तो बोलो जवाब दो
बस्ती में चार चांद से चेहरे थे क्या हुए
ख़ामोश तुम थे और मेरे होंट भी थे बंद
निज़ाम साहब का मानना है कि और ज़बानों ने इशारे छोड़ दिये हैं। 'उर्दू' न केवल इशारे को पकड़े हुए है बल्कि उसकी परवरिश भी कर रही है। इसलिए बेहतर शेर वही लगते हैं जो इशारे में कहे जाएं और ज़रा देखिये इस बात को उनकी शायरी में-
ख़ामोश तुम थे और मेरे होंट भी थे बंद
फिर इतनी देर कौन था जो बोलता रहा
मेरे अलिफ़ाज में असर रख दे
सीपियां हैं तो फिर गौहर रख दे
चंद लम्हें तो कोई सुस्ता ले
राह में एक दो सज़र रख दे
ग़र सज़र में समर नहीं मुमकिन
उसमें साया ही शाख फर रख दे
कल के अख़बार में तू झूठी ही सही
एक तो अच्छी सी ख़बर रख़ दे
तू अकेला है बंद है कमरा
अब तो चेहरा उतारकर रख दे
अच्छे दिन कब आएंगे, क्या यूं ही मर जाएंगे
'मुहम्मद अल्वी' के एक शेर के हवाले से अपनी बात रखते हैं कि - अल्वी साहब ने तो 30-40 साल पहले ही लिखा था ''अच्छे दिन कब आएंगे/ क्या यूं ही मर जाएंगे।'' जब ये कहा कहा गया तो उसके संदर्भ अलग रहे होंगे लेकिन आज भी लोग इस शेर को इस्तेमाल करते हैं। कहने का मतलब यह कि उर्दू शायरी ने आज भी इशारे को आर्ट को नहीं छोड़ा है।
वो कहां चश्मे तर में रहते हैं
ख़्वाब खुश्बू के घर में रहते हैं
अक्स हैं उनके आसमानों पर
चांद-तारे तो घर में रहते हैं
शहर का हाल आ के हमसे पूछ
वो तो हमेशा सफ़र में रहते हैं
निज़ाम साहब आज के इस अस्मितावादी दौर में हिंदुस्तानी तहज़ीब और साझा संस्कृति के जीवित हस्ताक्षर की तरह मौजूद हैं। वे एक ऐसी अनोखी विरल उपस्थिति हैं कि उनके इस तरह होने पर भी आश्चर्य होता है।
आगे पढ़ें
सपना सच से बड़ा है...
4 years ago
कमेंट
कमेंट X