केदारनाथ अग्रवाल मुलत: प्रेम भाव के कवि हैं, लेकिन उनकी कविताओं में शोषितों और वंचितों की आवाजें भी सम्मिलित हैं और यह आवाज प्रगतिशील आंदोलन के पहले से भी उनकी काव्यधारा में भावबोध के स्तर पर दिखाई देने लगती है। केदार नाथ अग्रवाल की कविताओं में प्रकृति का सौंदर्य कूट- कूटकर भरा है लेकिन उसमें सिर्फ पहाड़, नदी, झरने और जंगल की सुंदरता नहीं है, उसमें खेत है किसान हैं, लोगों की बस्ती है जहां ठिगना चना भी किसी किसान के गबरू जवान की तरह मुरैठा बांधे लगता है, हठीली अलसी और पीली सरसों किसान की सयानी बेटियां हो जाती हैं-
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिंगना चना
बांधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का
सजकर खड़ा है
पास ही मिलकर उगी है
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली, कमर की है लचीली
नीले फूले फूल को सिर पर चढ़ाकर
कह रही है जो छुए यह
दूं हृदय का दान उसको
और सरसों की न पूछो
हो गई सबसे सयानी, हाथ पीले कर लिए हैं
ब्याह मण्डप में पधारी
फाग गाता मास फागुन
आ गया है आज जैसे
देखता हूं मैं स्वयंवर हो रहा है
प्रकृति का अनुराग-अंचल हिल रहा है
इस विजन में
दूर व्यापारिक नगर में
प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है...
केदार की ही एक और कविता है-
हम न रहेंगे
तब भी तो यह खेत रहेंगे
इन खेतों पर घन घहराते
शेष रहेंगे
जीवन देते, प्यास बुझाते
माटी को मदमस्त बनाते
श्याम बदरिया के
लहराते केश रहेंगे....
राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं पर भी उनकी पैनी दृष्टि रहती थी और जब कोई हलचल होती तो वे उसे अपनी कविताओं में ढालते जरूर थे। 1965 में जब वेलेन्टीना तेरेस्कोआ चांद पर गयीं तो केदार जी ने कविता लिखी-
इकला चांद
असंख्य तारे,
नील गगन के
खुले किवाड़े;
कोई हमको
कहीं पुकारे
हम आएंगे
बाँह पसारे !
उनकी कविताओं में समाया हुआ प्रेम सामान्य अर्थों मसलन प्रेमी - प्रेमिका, पति-पत्नी तक सीमित नहीं है। यह एक ऐसा प्रेम है जिसमें पूरी सृष्टि समाई हुई है। प्रकृति, मनुष्य, पशु, पक्षी, नदी, नाला, पोखर, पहाड़, खेत-खलिहान, बाग़-बगीचे आदि सभी उनके प्रेम के पात्र हैं। प्रेम पर उनकी 2 छोटी कविताएं देखिए-
चम्पई आकाश तुम हो
हम जिसे पाते नहीं
बस देखते हैं ;
रेत में आधे गड़े
आलोक में आधे खड़े ।
असीम सौन्दर्य की एक लहर,
नदी से नहीं-
समुद्र से नहीं
देखते ही देखते
उमड़ी तुम्हारे शरीर से,
छाप कर छा गई
फैल गई मुझ पर !
केदार की कविताओं में प्रेम और सौन्दर्य एक-दूसरे से घुले मिले हैं-
हे मेरी तुम!
आज धूप जैसी हो आई
और दुपट्टा
उसने मेरी छत पर रक्खा
मैंने समझा तुम आई हो
दौड़ा मैं तुमसे मिलने को
लेकिन मैंने तुम्हें न देखा
बार-बार आँखों से खोजा
वही दुपट्टा मैंने देखा
अपनी छत के ऊपर रक्खा।
मैं हताश हूँ
पत्र भेजता हूँ, तुम उत्तर जल्दी देना:
बतलाओ क्यों तुम आई थीं मुझ से मिलने
आज सवेरे,
और दुपट्टा रख कर अपना
चली गई हो बिना मिले ही?
क्यों?
आख़िर इसका क्या कारण?
केदारनाथ अग्रवाल की कविताएं अपने समय का दस्तावेज हैं, उन्हें पूरी तरह से समझने के लिए उस पूरे कालखण्ड को समझना बहुत ज़रूरी है जिस समय में रचनात्मकता उनमें आकार ले रही थी। और मामला चाहे किसानों, मजदूरों का हो, प्रेम का हो या कोई राजनीतिक हलचल, कवि को ये सारी चीजें किसी न किसी रूप में झकझोर रहीं थीं। वह सारा समय उनकी कविताओं में धड़कता है जिसमें वे रच रहे हैं। राजनीति पर जब वे टिप्पड़ी करते हैं-
न आग है, न पानी
देश की राजनीति बिना आग पानी के
खिचड़ी पकाती है
जनता हवा खाती है
'धूप' का ज़िक्र भी केदारनाथ की कविताओं में प्रमुखता से है-
धूप धरा पर उतरी
जैसे शिव के जटाजूट पर
नभ से गंगा उतरी ।
धरती भी कोलाहल करती
तम से ऊपर उभरी !!
धूप धरा पर बिखरी !!
बरसी रवि की गगरी,
जैसे ब्रज की बीच गली में
बरसी गोरस गगरी ।
फूल-कटोरों-सी मुसकाती
रूप भरी है नगरी !!
धूप धरा पर निखरी !!
उनका पहला काव्य-संग्रह युग की गंगा आज़ादी के पहले मार्च, 1947 में प्रकाशित हुआ। हिंदी साहित्य के इतिहास को समझने के लिए यह संग्रह एक बहुमूल्य दस्तावेज़ है। 1 अप्रैल 1911 को उत्तर-प्रदेश के बांदा जनपद के कमासिन गाँव में जन्मे केदारनाथ बचपन से ही काव्य प्रेमी थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान ही उन्होंने कविताएँ लिखने की शुरुआत की। युग की गंगा, नींद के बादल, लोक और अलोक, आग का आइना, पंख और पतवार, अपूर्वा, बोले बोल अनमोल, आत्म गंध आदि उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। उनकी कई कृतियाँ अंग्रेजी, रूसी और जर्मन भाषा में अनुवाद भी हो चुकी हैं। केदार शोधपीठ की ओर हर साल एक साहित्यकार को लेखनी के लिए 'केदार सम्मान' से सम्मानित किया जाता है।
अपनी लंबी रचनमात्मक यात्रा के लिए उन्हें- सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, हिंदी संस्थान पुरस्कार, तुलसी पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार जैसे सम्मानों से उन्हें सम्मानित किया जा चुका है। 22 जून 2000 को शब्दों के इस साधक ने आखिरी सांस ली।
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3 months ago
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