मशहूर शायर शीन काफ़ निज़ाम लिखते हैं कि मुनीर की शायरी में बनावट और बुनावट नहीं, सीधे-सीधे अहसास को अल्फ़ाज और ज़ज़्बे को ज़बान देने का अमल है। उनकी शायरी का ग्राफ बाहर से अंदर और अंदर से अंदर की तरफ है। एक ऐसी तलाश जो परेशान भी करती है और प्राप्य पर हैरान भी, जो हर सच्चे और अच्छे शायर का मुकद्दर है।
इक तेज़ तीर था कि लगा और निकल गया
मारी जो चीख़ रेल ने जंगल दहल गया
सोया हुआ था शहर किसी साँप की तरह
मैं देखता ही रह गया और चाँद ढल गया
ख़्वाहिश की गर्मियाँ थीं अजब उन के जिस्म में
ख़ूबाँ की सोहबतों में मिरा ख़ून जल गया
थी शाम ज़हर-ए-रंग में डूबी हुई खड़ी
फिर इक ज़रा सी देर में मंज़र बदल गया
मुद्दत के बा'द आज उसे देख कर 'मुनीर'
इक बार दिल तो धड़का मगर फिर सँभल गया
ख़ूबाँ-सुंदरियां
बकौल अहमद नदीम क़ासमी मुनीर का तसव्वुफ़ मीर का दर्द और असग़र गोण्डवी से बिल्कुल अलग है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यह परंपरागत सूफ़ीवाद से भिन्न है, शायद यही शबब है उन्हें किसी भी तरह के वाद या नजरिए से नहीं नापा-परखा जा सकता।
कमरे में ख़ामोशी है और बाहर रात बहुत काली है
ऊँचे ऊँचे पेड़ों पर सियाही ने छावनी डाली है
तेज़ हवा कहती है पल में बरखा आने वाली है
वो सोला-सिंगार किए अपनी ही सोच में खोई हुई है
साँसों में वो गहरा पन है जैसे बे-सुध सोई हुई है
दिल में सौ अरमान हैं लेकिन मेरी सम्त निगाह नहीं है
यूँ बैठी है जैसे उस के दिल में किसी की चाह नहीं है
देर कर देता हूं मैं, मुनीर नियाज़ी (वाणी प्रकाशन) से साभार
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4 वर्ष पहले
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