किसी माशूक के ख़तों में इन्क़लाबी आग लगा देने के बाद हवा में जो ख़ुशबू रवां होगी उसका नाम होगा ‘असरार उल हक़ मजाज़’ और इस हवा की कैफ़ियत है कि यह जितनी नशातअंगेज़ महसूस होती है उतनी ही ग़मज़दा भी है जिसे ग़ालिबन किसी ग़मख्वार की ज़रूरत भी हो।
लेकिन, इस तआरूफ़ में भी इतना ही इम्कान है कि मजाज़ को सतही तौर पर ही जज़्ब किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद की पैदाइश असरार उल हक़ जिनकी तालीम का सफ़र लखनऊ और आगरा से होते हुए अलीगढ़ विश्वविद्यालय तक पहुंचा। मुज़्तर ख़ैराबादी और उस्मान हारूनी जैसे नामचीन शायरों के परिवार से तआल्लुक़ात रखने वाले मजाज़ लखनवी में जितनी रूमानियत थी उतनी ही रूहानियत भी थी कि वह तरक्क़ीपसंद ख़ेमे से हमख़याल हो सके।
बोल! अरी ओ धरती बोल!
राज सिंघासन डाँवाडोल
नामी और मशहूर नहीं हम
लेकिन क्या मज़दूर नहीं हम
धोका और मज़दूरों को दें
ऐसे तो मजबूर नहीं हम
मंज़िल अपने पाँव के नीचे
मंज़िल से अब दूर नहीं हम
बोल! अरी ओ धरती बोल!
राज सिंघासन डाँवाडोल
बोल कि तेरी ख़िदमत की है
बोल कि तेरा काम किया है
बोल कि तेरे फल खाए हैं
बोल कि तेरा दूध पिया है
बोल कि हम ने हश्र उठाया
बोल कि हम से हश्र उठा है
बोल कि हम से जागी दुनिया
बोल कि हम से जागी धरती
बोल! अरी ओ धरती बोल!
राज सिंघासन डाँवाडोल
मजाज़ अपने फ़न के साथ-साथ अपनी हाज़िर-जवाबी के लिए भी मशहूर थे, किसी भी मौके को चूक जाने से वह कभी न चूकते थे, मसलन
किसी दोस्त ने कहा कि , “भाई! मुझे लगता है कि अब मुझे शादी कर लेनी चाहिए”
इस पर मजाज़ ने कहा कि, “तो कर लीजिए, इस पर कौन सी संसद में बहस होनी है”
इस पर वह शख़्स बोले कि, “दरअसल मैं एक बेवा से शादी करना चाहता हूं”
यहां वह मजाज़ मज़ाहिया तौर पर बोले “शादी आप किसी से भी कर लें, बेवा तो वह बेचारी हो ही जाएगी”
एक मिसाल कुछ यूं भी है कि मजाज़ एक कॉफ़ी हाउस में तन्हा दोस्तों का इंतज़ार कर रहे थे कि तभी एक शख़्स जिनसे मजाज़ की मालूमात थी वह आकर बैठ गए, कुछ तक़ल्लुफ़ किया फिर अपना ऑर्डर देकर गाने लगे
अहमक़ो की कमी नहीं ग़ालिब
एक ढ़ूंढ़ों हज़ार मिलते हैं
मजाज़ कैसे यह मौका चूक जाते, फ़ौरन बोल उठे
“ढूंढने की नौबत भी कहाँ आती है हज़रत! ख़ुद-ब-ख़ुद तशरीफ़ ले आते हैं।”
मजाज़ पर शेर-ओ-शायरी का फ़न तारी था और लड़कियों पर मजाज़ का, कहते हैं कि वह अपने तकियों में उनकी लिखी नज़्मों और ग़ज़लों को छुपा कर रखा करती थीं और पर्चियां निकालती थीं कि मजाज़ किसे अपनी दुल्हन बनाएंगे। मजाज़ की रूमानियत की कुछ मिसाली
ख़ुद दिल में रह के आँख से पर्दा करे कोई
हाँ लुत्फ़ जब है पा के भी ढूँडा करे कोई
तुम ने तो हुक्म-ए-तर्क-ए-तमन्ना सुना दिया
किस दिल से आह तर्क-ए-तमन्ना करे कोई
दुनिया लरज़ गई दिल-ए-हिरमाँ-नसीब की
इस तरह साज़-ए-ऐश न छेड़ा करे कोई
मुझ को ये आरज़ू वो उठाएँ नक़ाब ख़ुद
उन को ये इंतिज़ार तक़ाज़ा करे कोई
रंगीनी-ए-नक़ाब में गुम हो गई नज़र
क्या बे-हिजाबियों का तक़ाज़ा करे कोई
या तो किसी को जुरअत-ए-दीदार ही न हो
या फिर मिरी निगाह से देखा करे कोई
होती है इस में हुस्न की तौहीन ऐ 'मजाज़'
इतना न अहल-ए-इश्क़ को रुस्वा करे कोई
लेकिन मजाज़ की तक़दीर यही थी कि ज़माना उन पर फ़िदा था और वह जिस पर फ़िदा थे वह उनकी कभी हो न सकी। यह नज़्म ‘एतिराफ़’ मजाज़ ने अपनी माशूका के लिए ही लिखी थी जो शादीशुदा थी और किसी वक़्त मजाज़ से मिलने गयी थी।
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो
मैंने माना कि तुम इक पैकर-ए-रानाई हो
चमन-ए-दहर में रूह-ए-चमन-आराई हो
तलअत-ए-मेहर हो फ़िरदौस की बरनाई हो
बिंत-ए-महताब हो गर्दूं से उतर आई हो
मेरे साए से डरो तुम मिरी क़ुर्बत से डरो
अपनी जुरअत की क़सम अब मेरी जुरअत से डरो
तुम लताफ़त हो अगर मेरी लताफ़त से डरो
मेरे वादों से डरो मेरी मोहब्बत से डरो
अब मैं अल्ताफ़ ओ इनायत का सज़ा-वार नहीं
मैं वफ़ादार नहीं हाँ मैं वफ़ादार नहीं
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो
मजाज़ जितना नशा अपने कलामों में घोलते थे उतना ही अपने जिस्म में भी इसलिए उनके बारे में अक्सर ज़िक्र किया जाता था कि मजाज़ शराब को नहीं पीते शराब उन्हें पीती है और यह पेशीनगोई सच हो गयी। मजाज़ छत पर तन्हा नशे में घुल चुके थे।
मजाज़ ख़ुद अपना तआरूफ़ कैसे देते हैं, पढ़िए
ख़ूब पहचान लो असरार हूँ मैं
जिंस-ए-उल्फ़त का तलबगार हूँ मैं
इश्क़ ही इश्क़ है दुनिया मेरी
फ़ित्ना-ए-अक़्ल से बे-ज़ार हूँ मैं
ख़्वाब-ए-इशरत में हैं अरबाब-ए-ख़िरद
और इक शाइर-ए-बेदार हूँ मैं
छेड़ती है जिसे मिज़राब-ए-अलम
साज़-ए-फ़ितरत का वही तार हूँ मैं
रंग नज़्ज़ारा-ए-क़ुदरत मुझ से
जान-ए-रंगीनी-ए-कोहसार हूँ मैं
नश्शा-ए-नर्गिस-ए-ख़ूबाँ मुझ से
ग़ाज़ा-ए-आरिज़-ओ-रुख़्सार हूँ मैं
ऐब जो हाफ़िज़ ओ ख़य्याम मैं था
हाँ कुछ इस का भी गुनहगार हूँ मैं
ज़िंदगी क्या है गुनाह-ए-आदम
ज़िंदगी है तो गुनहगार हूँ मैं
रश्क-ए-सद-होश है मस्ती मेरी
ऐसी मस्ती है कि हुश्यार हूँ मैं
ले के निकला हूँ गुहर-हा-ए-सुख़न
माह ओ अंजुम का ख़रीदार हूँ मैं
दैर ओ काबा में मिरे ही चर्चे
और रुस्वा सर-ए-बाज़ार हूँ मैं
कुफ़्र ओ इल्हाद से नफ़रत है मुझे
और मज़हब से भी बे-ज़ार हूँ मैं
अहल-ए-दुनिया के लिए नंग सही
रौनक़-ए-अंजुमन-ए-यार हूँ मैं
ऐन इस बे-सर-ओ-सामानी में
क्या ये कम है कि गुहर-बार हूँ मैं
मेरी बातों में मसीहाई है
लोग कहते हैं कि बीमार हूँ मैं
मुझ से बरहम है मिज़ाज-ए-पीरी
मुजरिम-ए-शोख़ी-ए-गुफ़्तार हूँ मैं
हूर ओ ग़िल्माँ का यहाँ ज़िक्र नहीं
नौ-ए-इंसाँ का परस्तार हूँ मैं
महफ़िल-ए-दहर पे तारी है जुमूद
और वारफ़्ता-ए-रफ़्तार हूँ मैं
इक लपकता हुआ शो'ला हूँ मैं
एक चलती हुई तलवार हूँ मैं
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बोल अरी ओ धरती बोल
7 months ago
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