अमर उजाला काव्य डेस्क, नई दिल्ली
सब ख़ुदा के वकील हैं लेकिन
आदमी का कोई वकील नहीं
कैसे कहें कि तुझ को भी हम से है वास्ता कोई
तूने तो हम से आज तक कोई गिला नहीं किया
वो दोपहर अपनी रुख़्सत की ऐसा-वैसा धोका थी
अपने अंदर अपनी लाश उठाए मैं झूटा ज़िंदा था
है कुछ ऐसा कि जैसे ये सब कुछ
इस से पहले भी हो चुका है कहीं
हम ने भी ज़िंदगी को तमाशा बना दिया
उस से गुज़र गए कभी ख़ुद से गुज़र गए
क्या है जो बदल गई है दुनिया
मैं भी तो बहुत बदल गया हूँ
अजब इक तौर है जो हम सितम ईजाद रखें
कि न उस शख़्स को भूलें न उसे याद रखें
अपने सब यार काम कर रहे हैं
और हम हैं कि नाम कर रहे हैं
आज मुझ को बहुत बुरा कह कर
आप ने नाम तो लिया मेरा
अब मिरी कोई ज़िंदगी ही नहीं
अब भी तुम मेरी ज़िंदगी हो क्या
अब तो हर बात याद रहती है
ग़ालिबन मैं किसी को भूल गया
अब तुम कभी न आओगे यानी कभी कभी
रुख़्सत करो मुझे कोई वादा किए बग़ैर
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