बिलम-बिलम जाए मन
वन्य वीथियों में
मक्खनी सुचिक्कन सी
शब्द-वीथियों में।
एक छुवन भर देती
फागुन की सिहरन
प्राण फूंक देती है
रह-रह कर चितवन
भर जाती है मिठास
प्रचुर लीचियों में।
देखो देखो बसंत
कैसा खिल आया
सरसों सा प्रिय का
हिय जैसे पियराया
बल्ब जल उठे कितने
सजल दीठियों में।
दो दिन ही तो बसंत
दो दिन ही फागुन है
दो दिन ही ठहरेगा
यह चंचल पाहुन है
रख लो कस कर इसको
बंद मुट्ठियों में।
शब्द कहां होते अब
प्रणय कथाओं में
दिन बीते, बहे हुए
शोख हवाओं में
महक कहां आती अब
भला चिट्ठियों में !
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1 month ago
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