माँ ने मुझे जन्म दिया
और जीवन के सुपुर्द कर दिया
पिता ने शब्द दिए
और सड़क पर छोड़कर
आकाश की तरफ़ देखने लगे
मैंने अपने को कविता के हवाले किया
पिता आकाश में क्या ढूँढ़ रहे सोचते
हवा की सीढ़ी पर चढ़ने लगे
कानों में आवाज़ आई
माँ की थी
धरती पर! धरती पर ढूँढ़ो
दुख की जड़ें यहीं हैं
जिससे घबराए बाप तुम्हारे
तकते हैं आसमान
तो उतरने लगा नीचे
दरारों और पत्थरों वाली धरती पर पाँव रखते ही
सुना मैंने सीढ़ी मत गिरना
सीढ़ी मत गिरना
धरती ही की फुसफुसाहट थी
जब माँस चढ़ जाएगा मेरी हड्डियों पर
गाने लग जाएँगी मेरी बेटियाँ
नहीं होंगे ये तंबू, ये गुंबद ज़ुल्म-ज़्यादती के
तक काम आएँगी ये सीढ़ियाँ
अपनी माँ की दुनिया के आगे भी है नक्षत्रों की सुंदर दुनिया
अब मेरी दाढ़ी सफ़ेद हो चुकी है
मैं एक गंजा कवि
नाराज़ कुत्ते की तरह सूँघता-भौंकता रहता हूँ
सांसत घर पुराने जैसे नहीं रहा
बहुत भव्य है और उतना ही पुख़्ता
पर वैसी ही चीख़ें, वैसी ही सिसकियाँ
अँधेरा पहले से भी तेज़ रोशनी में घना
कब से पन्ने चिपका रहा हूँ
पाट रहा हूँ दरारें
सी रहा हूँ उधड़ी हुई कथड़ी
बीच-बीच में टोहता रहता हूँ
कहीं खिसक तो नहीं गई वह सीढ़ी
खड़ी है शान से अब भी
जैसे चुनौती देती प्रतीक्षा करती
पर मैं तो नहीं
मैं कैसे चढ़ पाऊँगा
मुझसे नहीं हुआ कुछ भी
बीत गई आधी सदी
नदी सूख गई बचपन की
अब तो उड़ती हुई रेत है
और थकी हुई आँखें इतना ही।
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2 months ago
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