आज खड्ग की धार कुंठिता है, ख़ाली तूणीर हुआ,
विजय पताका झुकी हुई है, लक्ष्यभ्रष्ट यह तीर हुआ,
बढ़ती हुई क़तार फ़ौज की सहसा अस्त-व्यस्त हुई,
त्रस्त हुई भावों की गरिमा, महिमा सब संन्यस्त हुई;
मुझे न छेड़ो, इतिहासों के पन्नो, मैं गतधीर हुआ,
आज खड्ग की धार कुंठिता है, ख़ाली तूणीर हुआ!
मैं हूँ विजित, जीत का प्यासा विजित, भूल जाऊँ कैसे?
वह संघर्षण की घटिका है बसी हुई हिय में ऐसे,—
जैसे माँ की गोदी में शिशु का दुलार बस जाता है,
जैसे अंगुलीय में मरकत का नवनग कस जाता है;
'विजय-विजय' रटते-रटते मेरा मनुआ कल-कीर हुआ,
फिर भी असि की धार कुंठिता है, ख़ाली तूणीर हुआ!
गगन भेद कर वरद करों ने विजय प्रसाद दिया था जो,
जिसके बल पर किसी समय में मैंने विजय किया था जो,
वह सब आज टिमटिमाती स्मृति-दीपशिखा बन आया है,
कालांतर ने कृष्ण आवरण में उसको लिपटाया है,
गौरव गलित हुआ, गुरुता का निष्प्रभ क्षीण शरीर हुआ,
आज खड्ग की धार कुंठिता है, ख़ाली तूणीर हुआ!
एक सहस्र वर्ष की माला मैं हूँ उलटी फेर रहा,
उन गत युग के गुंफित मनकों को मैं फिर-फिर हेर रहा,
घूम गया जो चक्र उसी की ओर देखता जाता हूँ,
इधर-उधर सब ओर पराजय की ही मुद्रा पाता हूँ!
आँखों का ज्वलंत क्रोधानल क्षीण दैन्य का नीर हुआ,
आज खड्ग की धार कुंठिता है, ख़ाली तूणीर हुआ!
विजय-सूर्य ढल चुका अँधेरा आया है रखने को लाज,
कहीं पराजित का मुख देख न ले यह विजयी कुटिल समाज,
अंचल, कहाँ फटा अंचल वह? माँ का प्यारा वस्त्र कहाँ?
अर्धनग्न, रुग्णा, कपूत की माँ का लज्जा-अस्त्र कहाँ?
कहाँ छिपाऊँ यह मुख अपना? खोकर विजय फ़क़ीर हुआ,
आज खड्ग की धार कुंठिता है, ख़ाली तूणीर हुआ!
जहाँ विजय के पिपासार्त हो गये, आँख की ओट कई,
जहाँ जूझकर मरे अनेकों, जहाँ खा गये चोट कई,
वहीं आज संध्या को मैं बैठा हूँ अपनी निधि छोड़े,
कई सियार, श्वान, गीदड़ ये लपक रहे दौड़े-दौड़े!
विजित साँझ के झुटपुटे समय कर्कश रव गंभीर हुआ,
आज खड्ग की धार कुंठिता है, ख़ाली तूणीर हुआ!
रग-रग में ठंडा पानी है, अरे उष्णता चली गयी,
नस-नस में टीसें उठती हैं, विजय दूर तक टली सही,
विजय नहीं, रण के प्रांगण की धूल बटोरे लाया हूँ,
हिय के घावों में, वर्दी के चिथड़ों में ले आया हूँ!
टूटे अस्त्र, धूल माथे पर, हा! कैसा मैं वीर हुआ,
आज खड्ग की धार कुंठिता है, ख़ाली तूणीर हुआ!
वर्दी फटी, हृदय घायल; कारिख मुख भर, क्या वेश बना?
आँखें सकुच रहीं, कायरता के पंकिल से देश सना!
अरे पराजित, ओ! रणचंडी के कुपूत! हट जा, हट जा,
अभी समय है, कह दे, माँ-मेदिनी ज़रा फट जा, फट जा,
हंत! पराजय-गीत आज क्या द्रुपद-सुता का चीर हुआ?
खिंचता ही आता है जब से ख़ाली यह तूणीर हुआ!!
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1 month ago
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