अमर उजाला काव्य डेस्क, नई दिल्ली
खुली आंखों में सपना झांकता है
वो सोया है कि कुछ कुछ जागता है
तिरी चाहत के भीगे जंगलों में
मिरा तन मोर बन कर नाचता है
मुझे हर कैफ़ियत में क्यूं न समझे
वो मेरे सब हवाले जानता है
मैं उस की दस्तरस में हूं मगर वो
मुझे मेरी रज़ा से मांगता है
किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल
बहाने से मुझे भी टालता है
सड़क को छोड़ कर चलना पड़ेगा
कि मेरे घर का कच्चा रास्ता है
अमर उजाला काव्य डेस्क, नई दिल्ली
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