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SC: सुप्रीम कोर्ट ने कहा- वेतन में समय-समय पर संशोधन करना नियोक्ताओं का दायित्व, याद दिलाई ‘कॉस्ट ऑफ लिविंग’

राजीव सिन्हा, नई दिल्ली। Published by: देव कश्यप Updated Fri, 03 Feb 2023 05:59 AM IST
सार

जस्टिस अनिरुद्ध बोस और एस रवींद्र भट की पीठ ने कहा कि राज्य और सार्वजनिक नियोक्ताओं का दायित्व है कि वे सार्वजनिक हित के एक उपाय के रूप में मूल्यवृद्धि के दुष्प्रभाव के कारण रहने की लागत (लिविंग ऑफ कॉस्ट) में वृद्धि को समझें। क्योंकि इसके परिणामस्वरूप वास्तविक वेतन में गिरावट आती है।

सुप्रीम कोर्ट।
सुप्रीम कोर्ट। - फोटो : ANI

विस्तार

सुप्रीम कोर्ट ने बृहस्पतिवार को कहा कि मूल्यवृद्धि के दुष्प्रभावों से निपटने के लिए सामान्य हित में वेतन में समय-समय पर संशोधन करना सार्वजनिक नियोक्ताओं का दायित्व है। शीर्ष अदालत ने नियोक्ताओं को याद दिलाई कॉस्ट ऑफ लिविंग।



जस्टिस अनिरुद्ध बोस और एस रवींद्र भट की पीठ ने कहा कि राज्य और सार्वजनिक नियोक्ताओं का दायित्व है कि वे सार्वजनिक हित के एक उपाय के रूप में मूल्यवृद्धि के दुष्प्रभाव के कारण रहने की लागत (लिविंग ऑफ कॉस्ट) में वृद्धि को समझें। क्योंकि इसके परिणामस्वरूप वास्तविक वेतन में गिरावट आती है। समय-समय पर इस दायित्व का निर्वहन किया जाना चाहिए। फिर भी इस तरह के वेतन संशोधन कब किए जाने हैं और किस हद तक संशोधन किए जाने चाहिए, इसके लिए कोई सीधा या सामान्य फॉर्मूला नहीं हो सकता है।


पीठ ने कहा, वेतन संशोधन की सीमा क्या होनी चाहिए, निःसंदेह ऐसे मामले हैं जो कार्यकारी नीति निर्माण के दायरे में आते हैं। साथ ही इसमें एक बड़ा जनहित शामिल है, जो सार्वजनिक अधिकारियों और कर्मचारियों के वेतन में संशोधन को प्रेरित करता है। अच्छी सार्वजनिक नीति की अपेक्षा केंद्र, राज्य सरकारों और अन्य सार्वजनिक नियोक्ताओं से की जाती है। इनके जरिये समय-समय (आमतौर पर एक दशक में एक बार, पिछले 50 वर्षों या उससे अधिक के लिए) पर वेतन संशोधन किया गया है।
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