महाराष्ट्र की चतुष्कोणीय राजनीति में तीन अन्य राज्यों की सियासत की अहम भूमिका है। इन्हीं गुत्थियों को सुलझाने में कांग्रेस, शिवसेना और एनसीपी को इतना अधिक समय लग रहा है, जिससे सरकार गठन में देरी हो रही है। भाजपा और शिवसेना के बीच आधी-आधी सीटों पर लड़ने का फार्मूला बिहार से आया, जहां गत लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जदयू के साथ 17-17 सीटों का समझौता किया था।
इसी के बाद शिवसेना ने भी आधी-आधी सीटों पर लड़ने की जिद पकड़ ली। अंतत: भाजपा 25 और शिवसेना 23 सीटों पर लड़े। उसने यही फार्मूला विधानसभा चुनाव में भी लागू करने की मांग की और 14 दौर की बातचीत के बाद 124 सीटों पर लड़ने पर राजी हुई जबकि भाजपा ने दूसरे सहयोगियों के साथ 164 सीटों पर चुनाव लड़ा। ढाई-ढाई साल का मुख्यमंत्री बनाने को लेकर आखिरकार दोनों पार्टियों का गठबंधन टूट गया।
महाराष्ट्र में शिवसेना कांग्रेस और एनसीपी मिलकर भी अभी सरकार नहीं बना पाई हैं तो इसके पीछे शिवसेना की हिंदुत्ववादी नीतियां और गैर मराठी भाषियों के खिलाफ उसका आक्रामक रुख है। शिवसेना की दक्षिणपंथी छवि की वजह से उससे तालमेल पर कांग्रेस की पंजाब इकाई को आपत्ति थी तो वहीं मुंबई में लंबे समय तक शिवसेना द्वारा चलाए गए तमिल विरोधी आंदोलन की वजह से तमिलनाडु में कांग्रेस की सहयोगी डीएमके इससे सहज नहीं थी।
अब जब राज्य में गैर भाजपा सरकार बनने को तैयार है तो सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली भाजपा इसे लेकर ज्यादा चिंतित नहीं है। उसका मानना है कि विपरीत वैचारिक ध्रुवों के मिलने से बनने वाली सरकार कभी भी स्थायी नहीं हो सकती।
शिवसेना को होगा नुकसान
लंबे समय तक शिवसेना और भाजपा के बीच कड़ी का काम कर चुके एक वरिष्ठ भाजपा नेता का मानना है कि इन तीनों दलों के बीच इतने अधिक मतभेद हैं कि वह कभी भी साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ सकते। ऐसे में वे केवल सरकार बनाने के लिए ही साथ आए हैं। यह सरकार लंबे समय तक नहीं चलेगी और जितनी ज्यादा चलेगी उतना ज्यादा नुकसान इन दलों को होगा।
इसलिए नहीं बनी भाजपा सरकार
भाजपा नेताओं का कहना था कि शिवसेना ने ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्री बनाने की मांग कर बात इतनी ज्यादा बढ़ा दी थी कि उसके लिए कदम पीछे खींच पाना मुश्किल हो गया। सेना ने भाजपा के साथ समझौते के सभी रास्ते खुद बंद कर दिए। इसलिए अब वह कांग्रेस और एनसीपी की शर्तों पर सरकार बना रही है।
खास बातें
- पंजाब में कांग्रेस तो तमिलनाडु में डीएमके को शिवसेना के साथ तालमेल पर एतराज
- बिहार से आया था भाजपा-शिवसेना के बीच आधी-आधी सीटों पर लड़ने का फार्मूला
- दक्षिणपंथी छवि की वजह से शिवसेना से तालमेल पर पंजाब कांग्रेस को थी आपत्ति
- शिवसेना के तमिल विरोधी आंदोलन की वजह से तमिलनाडु में डीएमके इससे सहज
महाराष्ट्र की चतुष्कोणीय राजनीति में तीन अन्य राज्यों की सियासत की अहम भूमिका है। इन्हीं गुत्थियों को सुलझाने में कांग्रेस, शिवसेना और एनसीपी को इतना अधिक समय लग रहा है, जिससे सरकार गठन में देरी हो रही है। भाजपा और शिवसेना के बीच आधी-आधी सीटों पर लड़ने का फार्मूला बिहार से आया, जहां गत लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जदयू के साथ 17-17 सीटों का समझौता किया था।
इसी के बाद शिवसेना ने भी आधी-आधी सीटों पर लड़ने की जिद पकड़ ली। अंतत: भाजपा 25 और शिवसेना 23 सीटों पर लड़े। उसने यही फार्मूला विधानसभा चुनाव में भी लागू करने की मांग की और 14 दौर की बातचीत के बाद 124 सीटों पर लड़ने पर राजी हुई जबकि भाजपा ने दूसरे सहयोगियों के साथ 164 सीटों पर चुनाव लड़ा। ढाई-ढाई साल का मुख्यमंत्री बनाने को लेकर आखिरकार दोनों पार्टियों का गठबंधन टूट गया।
महाराष्ट्र में शिवसेना कांग्रेस और एनसीपी मिलकर भी अभी सरकार नहीं बना पाई हैं तो इसके पीछे शिवसेना की हिंदुत्ववादी नीतियां और गैर मराठी भाषियों के खिलाफ उसका आक्रामक रुख है। शिवसेना की दक्षिणपंथी छवि की वजह से उससे तालमेल पर कांग्रेस की पंजाब इकाई को आपत्ति थी तो वहीं मुंबई में लंबे समय तक शिवसेना द्वारा चलाए गए तमिल विरोधी आंदोलन की वजह से तमिलनाडु में कांग्रेस की सहयोगी डीएमके इससे सहज नहीं थी।
अब जब राज्य में गैर भाजपा सरकार बनने को तैयार है तो सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली भाजपा इसे लेकर ज्यादा चिंतित नहीं है। उसका मानना है कि विपरीत वैचारिक ध्रुवों के मिलने से बनने वाली सरकार कभी भी स्थायी नहीं हो सकती।
शिवसेना को होगा नुकसान
लंबे समय तक शिवसेना और भाजपा के बीच कड़ी का काम कर चुके एक वरिष्ठ भाजपा नेता का मानना है कि इन तीनों दलों के बीच इतने अधिक मतभेद हैं कि वह कभी भी साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ सकते। ऐसे में वे केवल सरकार बनाने के लिए ही साथ आए हैं। यह सरकार लंबे समय तक नहीं चलेगी और जितनी ज्यादा चलेगी उतना ज्यादा नुकसान इन दलों को होगा।
इसलिए नहीं बनी भाजपा सरकार
भाजपा नेताओं का कहना था कि शिवसेना ने ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्री बनाने की मांग कर बात इतनी ज्यादा बढ़ा दी थी कि उसके लिए कदम पीछे खींच पाना मुश्किल हो गया। सेना ने भाजपा के साथ समझौते के सभी रास्ते खुद बंद कर दिए। इसलिए अब वह कांग्रेस और एनसीपी की शर्तों पर सरकार बना रही है।