मणिपुर में हो रही हिंसा की कोई एक वजह नहीं हैं। अगर यहां के अतीत और वर्तमान को देखेंगे तो कई सारी कड़ियां आपस में जुड़ती हुई नजर आएंगी। जंगल और जमीन की एक लड़ाई तो समझ आती है, मगर दूसरी तरफ देशी और विदेशी ताकतों की साजिश भी सामने आ रही है। सेंटर फॉर इंडिक स्टडीज की पूर्व सहायक प्रोफेसर और नॉर्थ ईस्ट स्टडी में विशेषज्ञता हासिल करने वाली डॉ. अंकिता दत्ता बताती हैं, मणिपुर में जन्म दर धीमी है तो जनसंख्या में तेज वृद्धि कैसे हो गई। क्या ये बॉर्डर की चूक है। यानी म्यांमार बॉर्डर से जबरदस्त घुसपैठ हुई है। इसके अलावा मणिपुर की हिंसा की कहानी में 'म्यांमार' 'ड्रग' और 'साजिश' की एक इनसाइड स्टोरी भी तो है। इसमें देशी और विदेशी, सब शामिल हैं।
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म्यांमार बॉर्डर से बड़े पैमाने पर घुसपैठ
मणिपुर के कई हिस्सों का दौरा कर चुकी डॉ. अंकिता दत्ता बताती हैं कि वहां एक मुख्य समस्या बॉर्डर भी तो है और वह म्यांमार से लगता बॉर्डर है। उस इलाके में कुकी का बाहुल्य है। अगर गौर करें तो उनमें से अधिकांश, म्यांमार के नागरिक हैं। साल 2001 के आसपास मणिपुर के बॉर्डर क्षेत्रों की जनसंख्या में एकाएक तेज गति से वृद्धि दर्ज की गई। हैरानी की बात ये रही कि वह जनसंख्या वृद्धि, जन्म दर के मुकाबले बहुत ज्यादा थी। आखिर ये चमत्कार कैसे हुआ। अब सवाल तो उठेगा ही कि क्या म्यांमार बॉर्डर से बड़े पैमाने पर घुसपैठ हुई है। मतलब, ये एक सोची समझी साजिश है।मणिपुर के बॉर्डर एरिया को एक अलग जोन बनाने की तैयारी है। उसमें मैतई को छोड़कर बाकी सब होंगे।
बॉर्डर एरिया में कुकी ने नगा को पीछे छोड़ा
बॉर्डर एरिया में अफीम की जमकर खेती होती है। ड्रग के कारोबार के अलावा हथियार भी आते-जाते हैं। सरकारी आंकड़ों में ये सब काम कुकी समुदाय कर रहा है। 2017 में मणिपुर सरकार को निष्कासन ड्राइव शुरू करनी पड़ी। पता चला कि वहां रह रहे 90 फीसदी 'कुकी' तो 'म्यांमार' वाले हैं। बॉर्डर एरिया में पहले नगा होते थे, अब कुकी हैं। नार्को बिजनेस से उत्तर पूर्व के सफेदपोश ही नहीं, बल्कि खाकी एवं गैर खाकीधारी अफसर भी जुड़े हैं। कुछ समय पहले ही कुकी नेशनल आर्मी 'केएनए' और जोमी रिवोल्यूशनरी आर्मी 'जेडीआरए' के साथ संघर्ष विराम के समझौते से मणिपुर सरकार बाहर हो गई थी। मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ने केएनए नेता पीएस हाओकिप और जेडीआरए नेता थंगलियानपौ की राष्ट्रीयता का मुद्दा उठाया था। इसके अलावा मणिपुर में म्यांमार की सीमा से लगते चुराचांदपुर जिले में संदिग्ध कुकी इंडीपेंडेंट आर्मी (केआईए) उग्रवादियों ने सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन (एसओओ) के शिविर से हथियार व गोला बारुद लूट लिए थे।
एसओओ वह प्लेटफार्म था, जहां तीन उग्रवादी संगठन के सदस्यों ने सरकार के साथ 'सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन' समझौते पर हस्ताक्षर किए थे।
म्यांमार से संचालित होते रहे हैं उग्रवादी समूह
मणिपुर में उग्रवादियों के दर्जनों समूह रहे हैं। बहुत से समूह तो सीधे तौर पर म्यांमार से संचालित होते रहे हैं। ये समूह, बॉर्डर एरिया में खुले घूमते रहते हैं। वहां ये राज्य सरकार के कानून को नहीं मानते। इन्हें उगाही मिलिटेंट भी कहा जाता है। हिंसा में भी यही लोग शामिल होते हैं। इनके पक्ष में एक प्रॉपेगेंडा तैयार किया जाता है। वहां अवैध जमीन पर बनी चर्च नष्ट होते हैं, तो बड़ी संख्या में मंदिर भी नष्ट किए गए हैं। लगभग सौ मंदिर नष्ट किए गए हैं। इनमें दो सौ साल पुराना एक मंदिर भी शामिल है। यहां के मैतेई समाज ने बराक वैली 'असम' में शरण ली है। बतौर डॉ. अंकिता दत्ता, मणिपुर हिंसा मामले की न्यायिक जांच सुप्रीम कोर्ट के जज की अध्यक्षता में होनी चाहिए। फैक्ट फाइंडिंग के लिए ऐसा जरूरी है।
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मणिपुर सहित दूसरे राज्यों में लागू हो एनआरसी
केंद्र सरकार का एनआरसी मणिपुर सहित दूसरे राज्यों में लागू होना चाहिए। कम से कम ये तो पता चलेगा कि बॉर्डर से जुड़े जिलों में क्या हो रहा है। म्यांमार से कौन मणिपुर में घुस रहा है। वहां पर केवल कुकी व थोड़ी संख्या में नगा ही क्यों हैं। उन पर किसी का नियंत्रण नहीं है। ड्रग कारोबार में उनके साथ कुछ स्वदेशी तो कई विदेशी समूह पैसा कमा कर रहे हैं। 1960 के रेवेन्यू एक्ट को रिव्यू किया जाए। उसमें यह प्रावधान हो कि मैतेई को भी हिल क्षेत्र में जगह मिले। ऐसा नहीं है कि मणिपुर में केवल मैतेई ही सीएम रहे हैं। दूसरे समुदाय के लोगों को भी मौका मिला है। सुरक्षा बलों पर जितने भी हमले होते हैं, वे कुकी समुदाय के उग्र समूहों द्वारा होते हैं। मणिपुर का पहाड़ी क्षेत्र पूरी तरह से उनके कब्जे में है। यहां तक कि रिजर्व फोरेस्ट पर भी कुकी जमे हुए हैं। यहां पर मैतई को कोई अधिकार नहीं है।
दोबारा से खाद-पानी डालने की कोशिश
लेखक, इतिहास एवं शोधकर्ता मनोशी सिन्हा के मुताबिक, नगा व कुकी समुदायों के उग्रवादी समूह जैसे उल्फा तो अब खत्म से हो चले हैं, मगर उनकी जड़ें अभी तक हरी हैं। म्यांमार व बांग्लादेश की मदद से इनमें दोबारा से खाद पानी डालने की कोशिश हो रही है। कई बार इन समूहों के सदस्यों ने सरेंडर भी किया है। जब ये दो समूह हिंसा के मार्ग पर आगे बढ़ रहे थे, तो मैतेई की ओर से भी समूह बन गया। आज मैतई की संख्या मणिपुर में लगातार कम हो रही है। असम और त्रिपुरा में लोग पलायन कर चुके हैं। ऐसे में केंद्र सरकार को बहुत सावधानी से कदम बढ़ाना होगा। तीनों समुदायों के बीच संतुलन बनाए रखना होगा। अगर किसी एक समुदाय को आगे बढ़ाने के चक्कर में दूसरों के हित प्रभावित होंगे, तो हिंसा समाप्त नहीं होगी।