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किसान आंदोलन के आठवें दिन किसानों और सरकार के बीच चौथे दौर की वार्ता हुई। दोनों पक्ष अपनी-अपनी बात पर डटे हुए हैं। किसान तीनों विवादित कानूनों को सिरे से वापस लेने की मांग कर रहे हैं तो सरकार कानून के कुछ बिंदुओं में संशोधन के लिए तैयार होने के संकेत दे रही है। लेकिन जानकारों का मानना है कि सरकार पूरे विवाद को केवल एमएसपी को कानूनी प्रावधान बनाकर खत्म करा सकती है, लेकिन इसके लिए उसे पहल करनी पड़ेगी। इस मामले में सबसे बड़ा तर्क यह है कि इसके लिए सरकार को अपने ऊपर एक पैसे का भी अतिरिक्त बोझ वहन नहीं करना पड़ेगा।
किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष चौधरी पुष्पेंद्र सिंह ने अमर उजाला को बताया कि वर्तमान परिस्थितियों में पूरे देश में लगभग 30 लाख मीट्रिक टन खाद्यान्न का उत्पादन होता है। इसमें सरकार अधिकतम 10 लाख मीट्रिक टन खाद्यान्न की ही खरीद करती है। बाकी के खाद्यान्न में से कुछ खाद्यान्न किसान अपने परिवार के उपभोग के लिए रखता है और बाकी को खुले बाजार में बेच देता है। यह बाकी की खरीद खुले बाजार में प्राइवेट कंपनियों, बनियों, आढ़तियों या अन्य लोगों के द्वारा की जाती है।
समझने की बात यह भी है कि सरकार द्वारा घोषित किए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ केवल छह प्रतिशत किसानों को ही मिल पाता है। देश के बाकी 94 प्रतिशत किसान आज भी खुले बाजार में प्राइवेट कंपनियों, बनियों और अन्य लोगों के भरोसे हैं। ऐसे में अगर सरकार एमएसपी को कानूनी अधिकार बना भी देती है तो इसका भुगतान खुले बाजार को ही करना होगा और इसके कारण सरकार पर कोई अतिरिक्त खर्च नहीं आएगा। जबकि खुले बाजार में भी फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेचने को कानूनी अधिकार बना दिए जाने से उन 94 प्रतिशत किसानों को भी इसका लाभ मिलने लगेगा जो आज इस व्यवस्था का लाभ एपीएमसी मंडियों के माध्यम से नहीं उठा पाते।
लेकिन यह है पेच
दरअसल, तकनीकी कारणों को दिखाकर सरकारी अधिकारी फसलों की खरीद नहीं करते। कभी फसलों की खरीद देरी से शुरू की जाती है तो कभी खरीद के समय भी फसल में नमी होने का बहाना बनाकर किसानों को उनकी फसल का कम भुगतान किया जाता है। कई बार फसलों की ज्यादा खरीद होने के बाद खरीद बंद भी कर दी जाती है। लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी अधिकार बना दिए जाने के बाद किसान चाहे जितनी चाहे फसल बेच सकेगा, अधिकारी फसल की खरीदी से इनकार नहीं कर पाएंगे। इससे सरकार को आवश्यकता न होने पर भी फसल की खरीदी को मंजूरी देनी पड़ेगी।
ये है सबसे बड़ा नुकसान
एक कृषि विशेषज्ञ के मुताबिक, न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी अधिकार बना दिए जाने का सबसे बड़ा नुकसान यह हो सकता है कि किसान केवल उन्हीं फसलों को उगाने की बात सोचेगा जिसमें उसे आसानी से परंपरागत तरीके से लाभ मिलता रहा है। लेकिन इससे देश को उन फसलों की कमी झेलनी पड़ सकती है जिसकी देश में आवश्यकता तो ज्यादा है, लेकिन उसका उत्पादन कम है।
जैसे खाद्य तेल के बारे में देश कभी आत्मनिर्भर हुआ करता था, लेकिन आज हमें बाहरी देशों से खाद्य तेल का आयात करना पड़ता है। इसके लिए भारी विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है। नरेंद्र मोदी सरकार ने तिलहन फसलों पर एमएसपी बढाकर उसका उत्पादन बढ़ाने की कोशिश की है। इसका अच्छा लाभ भी मिलता दिख रहा है और देश में तिलहन फसलों की बुवाई रकबे में बढ़ोतरी हुई है।
आशंका है कि हर फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य के कानूनी अधिकार मिलने के बाद किसान नई फसल को बोने के लिए प्रेरित नहीं होगा, बल्कि वह परंपरागत तरीके से अपनी पुरानी फसलों को ही बोता रह सकता है। इससे देश में गेंहूं और धान का अंबार लग सकता है जो पहले ही देश की आवश्यकता से ज्यादा है, जबकि वह उन फसलों के उत्पादन में रुचि नहीं दिखा सकता है जो वह अब तक नहीं उपजाता रहा है। यही कारण है कि तकनीकी कारणों से सरकार किसानों को एमएसपी का कानूनी अधिकार देने से बच रही है।
किसान आंदोलन के आठवें दिन किसानों और सरकार के बीच चौथे दौर की वार्ता हुई। दोनों पक्ष अपनी-अपनी बात पर डटे हुए हैं। किसान तीनों विवादित कानूनों को सिरे से वापस लेने की मांग कर रहे हैं तो सरकार कानून के कुछ बिंदुओं में संशोधन के लिए तैयार होने के संकेत दे रही है। लेकिन जानकारों का मानना है कि सरकार पूरे विवाद को केवल एमएसपी को कानूनी प्रावधान बनाकर खत्म करा सकती है, लेकिन इसके लिए उसे पहल करनी पड़ेगी। इस मामले में सबसे बड़ा तर्क यह है कि इसके लिए सरकार को अपने ऊपर एक पैसे का भी अतिरिक्त बोझ वहन नहीं करना पड़ेगा।
किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष चौधरी पुष्पेंद्र सिंह ने अमर उजाला को बताया कि वर्तमान परिस्थितियों में पूरे देश में लगभग 30 लाख मीट्रिक टन खाद्यान्न का उत्पादन होता है। इसमें सरकार अधिकतम 10 लाख मीट्रिक टन खाद्यान्न की ही खरीद करती है। बाकी के खाद्यान्न में से कुछ खाद्यान्न किसान अपने परिवार के उपभोग के लिए रखता है और बाकी को खुले बाजार में बेच देता है। यह बाकी की खरीद खुले बाजार में प्राइवेट कंपनियों, बनियों, आढ़तियों या अन्य लोगों के द्वारा की जाती है।
समझने की बात यह भी है कि सरकार द्वारा घोषित किए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ केवल छह प्रतिशत किसानों को ही मिल पाता है। देश के बाकी 94 प्रतिशत किसान आज भी खुले बाजार में प्राइवेट कंपनियों, बनियों और अन्य लोगों के भरोसे हैं। ऐसे में अगर सरकार एमएसपी को कानूनी अधिकार बना भी देती है तो इसका भुगतान खुले बाजार को ही करना होगा और इसके कारण सरकार पर कोई अतिरिक्त खर्च नहीं आएगा। जबकि खुले बाजार में भी फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेचने को कानूनी अधिकार बना दिए जाने से उन 94 प्रतिशत किसानों को भी इसका लाभ मिलने लगेगा जो आज इस व्यवस्था का लाभ एपीएमसी मंडियों के माध्यम से नहीं उठा पाते।
लेकिन यह है पेच
दरअसल, तकनीकी कारणों को दिखाकर सरकारी अधिकारी फसलों की खरीद नहीं करते। कभी फसलों की खरीद देरी से शुरू की जाती है तो कभी खरीद के समय भी फसल में नमी होने का बहाना बनाकर किसानों को उनकी फसल का कम भुगतान किया जाता है। कई बार फसलों की ज्यादा खरीद होने के बाद खरीद बंद भी कर दी जाती है। लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी अधिकार बना दिए जाने के बाद किसान चाहे जितनी चाहे फसल बेच सकेगा, अधिकारी फसल की खरीदी से इनकार नहीं कर पाएंगे। इससे सरकार को आवश्यकता न होने पर भी फसल की खरीदी को मंजूरी देनी पड़ेगी।
ये है सबसे बड़ा नुकसान
एक कृषि विशेषज्ञ के मुताबिक, न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी अधिकार बना दिए जाने का सबसे बड़ा नुकसान यह हो सकता है कि किसान केवल उन्हीं फसलों को उगाने की बात सोचेगा जिसमें उसे आसानी से परंपरागत तरीके से लाभ मिलता रहा है। लेकिन इससे देश को उन फसलों की कमी झेलनी पड़ सकती है जिसकी देश में आवश्यकता तो ज्यादा है, लेकिन उसका उत्पादन कम है।
जैसे खाद्य तेल के बारे में देश कभी आत्मनिर्भर हुआ करता था, लेकिन आज हमें बाहरी देशों से खाद्य तेल का आयात करना पड़ता है। इसके लिए भारी विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है। नरेंद्र मोदी सरकार ने तिलहन फसलों पर एमएसपी बढाकर उसका उत्पादन बढ़ाने की कोशिश की है। इसका अच्छा लाभ भी मिलता दिख रहा है और देश में तिलहन फसलों की बुवाई रकबे में बढ़ोतरी हुई है।
आशंका है कि हर फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य के कानूनी अधिकार मिलने के बाद किसान नई फसल को बोने के लिए प्रेरित नहीं होगा, बल्कि वह परंपरागत तरीके से अपनी पुरानी फसलों को ही बोता रह सकता है। इससे देश में गेंहूं और धान का अंबार लग सकता है जो पहले ही देश की आवश्यकता से ज्यादा है, जबकि वह उन फसलों के उत्पादन में रुचि नहीं दिखा सकता है जो वह अब तक नहीं उपजाता रहा है। यही कारण है कि तकनीकी कारणों से सरकार किसानों को एमएसपी का कानूनी अधिकार देने से बच रही है।