मंडी। विस्थापित कश्मीरी पंडितों की संस्था पनुन कश्मीर के अध्यक्ष एवं राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कवि अगिभनशेखर का कहना है कि हिमाचल और कश्मीर का रिश्ता पुराना है। वे हिमाचल को कश्मीर की नजर से देखते हैं, तो इसमें अपनी मातृभूमि की झलक देखने को मिलती है। मंडी में ‘अमर उजाला’ से एक विशेष बातचीत में अगिभनशेखर ने कश्मीर के विस्थापन्न पर खुल कर बात करते हुए कहा कि 14वीं शताब्दी से लेकर 1990 तक कश्मीर के भट्ट पंडितों को सात बार अपनी जमीन से विस्थापित होना पड़ा है। हर बार वापसी की उम्मीद बनी रही। इस बार भी उन्हें कश्मीरी पंडितों की वापसी की उम्मीद है।
अगिभनशेखर ने कहा कि भारत-पाक के बटवारे में दस लाख लोग विस्थापित हुए थे। मगर 1990 के कश्मीरी पंडितों के इस विस्थापन में पांच लाख कश्मीरी विस्थापित हुए हैं। मगर इस बारे में हिंदी साहित्य खामोश है। जबकि विस्थापन को लेकर उर्दू में बहुत कुछ लिखा गया। सदात हसन मंटो की कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ इसकी ज्वलंत मिसाल है। मध्यकालीन बर्बता से लेकर 1990 के आतंकवाद तक कश्मीरी पंडितों को भारी कीमत अदा करनी पड़ी। जबकि कश्मीर साझा सांस्कृतिक विरासत का केंद्र रहा है। यहां शैव, वैष्णव, बौद्ध और इस्लाम मत समय-समय पर पनपते रहे।
एशिया की सबसे पहली इतिहास की पुस्तक राजतरंगिणी कश्मीरी पंडित कल्हण ने ही लिखी थी। बौद्ध धर्म कश्मीर के ही रास्ते तिब्बत और चीन पहुंचा। मगर लोगों की ईर्षा और साम्राज्यवादी शक्तियों के चलते मध्यकाल से आज तक विस्थापन का दौर चलता रहा है। हिमाचल में मुझे अपनों के घर नजर आ रहे हैं। जैसे मां का घर, बुआ का घर, वैसे ही जंगल ,पहाड़ और नदियां। मुझे सपने में भी कश्मीर नजर आता है। मगर वहां नहीं जा सकता। अगर वहां गया तो मारा जाऊंगा। विस्थापन हमारी आत्मा पर खरोच है।
मंडी। विस्थापित कश्मीरी पंडितों की संस्था पनुन कश्मीर के अध्यक्ष एवं राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कवि अगिभनशेखर का कहना है कि हिमाचल और कश्मीर का रिश्ता पुराना है। वे हिमाचल को कश्मीर की नजर से देखते हैं, तो इसमें अपनी मातृभूमि की झलक देखने को मिलती है। मंडी में ‘अमर उजाला’ से एक विशेष बातचीत में अगिभनशेखर ने कश्मीर के विस्थापन्न पर खुल कर बात करते हुए कहा कि 14वीं शताब्दी से लेकर 1990 तक कश्मीर के भट्ट पंडितों को सात बार अपनी जमीन से विस्थापित होना पड़ा है। हर बार वापसी की उम्मीद बनी रही। इस बार भी उन्हें कश्मीरी पंडितों की वापसी की उम्मीद है।
अगिभनशेखर ने कहा कि भारत-पाक के बटवारे में दस लाख लोग विस्थापित हुए थे। मगर 1990 के कश्मीरी पंडितों के इस विस्थापन में पांच लाख कश्मीरी विस्थापित हुए हैं। मगर इस बारे में हिंदी साहित्य खामोश है। जबकि विस्थापन को लेकर उर्दू में बहुत कुछ लिखा गया। सदात हसन मंटो की कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ इसकी ज्वलंत मिसाल है। मध्यकालीन बर्बता से लेकर 1990 के आतंकवाद तक कश्मीरी पंडितों को भारी कीमत अदा करनी पड़ी। जबकि कश्मीर साझा सांस्कृतिक विरासत का केंद्र रहा है। यहां शैव, वैष्णव, बौद्ध और इस्लाम मत समय-समय पर पनपते रहे।
एशिया की सबसे पहली इतिहास की पुस्तक राजतरंगिणी कश्मीरी पंडित कल्हण ने ही लिखी थी। बौद्ध धर्म कश्मीर के ही रास्ते तिब्बत और चीन पहुंचा। मगर लोगों की ईर्षा और साम्राज्यवादी शक्तियों के चलते मध्यकाल से आज तक विस्थापन का दौर चलता रहा है। हिमाचल में मुझे अपनों के घर नजर आ रहे हैं। जैसे मां का घर, बुआ का घर, वैसे ही जंगल ,पहाड़ और नदियां। मुझे सपने में भी कश्मीर नजर आता है। मगर वहां नहीं जा सकता। अगर वहां गया तो मारा जाऊंगा। विस्थापन हमारी आत्मा पर खरोच है।