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बेटियों को इंटरनेट से फंसा रहे चालबाज: रखिए ख्याल, बच्चियां नहीं जानतीं, वो दोस्त हैं या दरिंदे
अमर उजाला ब्यूरो, गोरखपुर।
Published by: vivek shukla
Updated Thu, 01 Jun 2023 01:30 PM IST
गोरखपुर में हर साल औसतन 500 से अधिक किशोरियों की जिंदगी ऐसे ही हैवान खराब कर रहे हैं। दोस्ती के जाल में फंसकर एक गलत फैसले से उनकी जिंदगी तबाह हो चुकी है। इनमें कई ऐसी भी हैं, जो पढ़ने-लिखने में मेधावी थीं और डॉक्टर-इंजीनियर बनने का सपना देखती थीं। लेकिन, आज वह अवसाद में जीवन गुजार रही हैं।
दरिंदे नासमझ बच्चियों को निशाना बना रहे हैं। इंटरनेट या अन्य तरीकों से दोस्ती गांठकर उनकी जिंदगी से खेल रहे हैं। नासमझ बच्चियां नहीं जानतीं कि जिसे दोस्त समझ रही हैं, वे दरिंदे हैं। दरिंदगी का खेल खेलकर दरिंदे जेल भेज भी दिए जाएं, तो कुछ दिनों में बाहर आ जाते हैं।लेकिन बच्ची की जिंदगी में जो तबाही मचती है, वह उसे जीवन भर उबरने नहीं देती। सात महीने की गर्भवती 16 साल की किशोरी से आपबीती पूछते ही वह सिसकने लगती है। कहती हैं, मैं तो समझ ही नहीं पाई थी, वह मेरे साथ ऐसा कर देगा, लेकिन अब सब बर्बाद हो चुका है।
खुदकुशी की भी कोशिश की। दूसरी तरफ पिता का दर्द है कि बेटी के पेट में पल रहे गर्भ को लोकलज्जा से बचाते हुए कैसे खत्म कराया जाए। उनके मन में बेटी की जिंदगी की तबाही के साथ ही गर्भ में ही एक हत्या से होने वाली अनहोनी का भय भी सता रहा है, लेकिन उनकी मजबूरी है कि मानवता धर्म को दरकिनार कर वह सबकुछ करने को तैयार हैं, जिसकी गवाही उनका मन नहीं दे रहा।
दुष्कर्म की शिकार बच्चियां कहती हैं, इज्जत-आबरू गंवाने के बाद अब हमें समाज के ताने सुनने पड़ते हैं। अपने ही कटने लगते हैं। मां-बाप की बेरुखी से पीड़ित बच्चियों की मानसिक स्थिति और खराब हो रही है। कई तो ऐसी हैं जो समय से इलाज न होने की वजह से अवसाद में चली जाती हैं। ऐसे में कई बार वे आत्मघाती कदम उठाकर खुद की जिंदगी ही खत्म कर देती हैं तो कई बार उन्हें ठीक करने के लिए मां-बाप को शहर छोड़ने जैसा बड़ा फैसला लेना पड़ता है।
गोरखपुर में हर साल औसतन 500 से अधिक किशोरियों की जिंदगी ऐसे ही हैवान खराब कर रहे हैं। दोस्ती के जाल में फंसकर एक गलत फैसले से उनकी जिंदगी तबाह हो चुकी है। इनमें कई ऐसी भी हैं, जो पढ़ने-लिखने में मेधावी थीं और डॉक्टर-इंजीनियर बनने का सपना देखती थीं। लेकिन, आज वह अवसाद में जीवन गुजार रही हैं। इन किशोरियों के साथ ही घरवालों के सपने भी बिखर गए। अब वे डॉक्टरों से दवा और काउंसिलिंग की मदद से उनकी मानसिक स्थिति को ठीक करने के जद्दोजहद में जुटे हैं।
केस एक
इंजीनियर बनने शहर गई...मां बना दिया
नवंबर 2017 में शाहपुर में दुष्कर्म का केस दर्ज हुआ। किशोरी को पुलिस ने खोज तो लिया, लेकिन उसकी जिंदगी तबाह हो चुकी है। इंटर में 88 प्रतिशत अंक आए तो घरवालों के हौसले भी बुलंद हो गए थे। इंजीनियरिंग की परीक्षा की तैयारी करने को शहर भेज दिया। गर्ल्स हॉस्टल के पास रहने वाले एक सीनियर के पास वह पढ़ने जाने लगी। शिक्षा को छोड़, सीनियर ने उसे प्रेम जाल में फंसाया और किशोरी भी सब भूल गई। तब उसकी उम्र महज 17 साल ही थी।
सीनियर उसे भगा ले गया। घरवाले परेशान हुए, खोजे और फिर 2017 में शाहपुर थाने में केस दर्ज कराया। पुलिस ने आरोपी को पकड़ा, लेकिन तब वह गर्भवती हो गई थी। उसने तो मां बना दिया था, मगर किसी तरह उस हालत से निकली। आज, उसकी उम्र 22 साल है। उसे अपनी नासमझी पर पछतावा होता है। कहती हैं, जिंदा हूं, मुझे इंजीनियर बनना था, लेकिन आज दवा के भरोसे हूं। फिर फोन पर ही रोने लगी। रोते हुए बोली, शहर छोड़ दिया है, बहुत याद आती है, लेकिन पापा कहते हैं, जाऊंगी तो लोग कई सवाल करेंगे, इस लिए नहीं जाती हूं।
केस दो
15 की उम्र में जिंदगी तबाह
बांसगांव के एक गांव की किशोरी आठ महीने की गर्भवती हो गई। 25 अप्रैल को केस दर्ज कर पुलिस ने जांच की तो पता चला कि उसकी मानसिक स्थिति कुछ ठीक नहीं थी। पिता की मदद के लिए एक घर में काम करने जाती थी और रास्ते में ही उसे एक संजय नाम के युवक ने फंसा लिया। मोबाइल फोन दे दिया और फिर बात करने लगा।
गरीबी के बीच मोबाइल पाकर खुश किशोरी का आरोपी ने गलत इस्तेमाल कर लिया और उसे गर्भवती बनाकर छोड़ दिया। परिवार वालों को भी इसकी जानकारी तब हुई, जब उसके शरीर में बदलाव आने लगा। फिर केस दर्ज कराया। पुलिस ने आरोपी को जेल भेज दिया, लेकिन 15 साल की उम्र में आठ महीने का गर्भ लिए घर में बैठी बेटी को देखकर हर पल पिता का कलेजा मुंह को आ जाता है।
ओपन सोसाइटी के चक्कर में भटकाव
मनोवैज्ञानिक डॉ. सीमा श्रीवास्तव ने कहा कि पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव बढ़ा है। कई अभिभावक घर में ओपन सोसायटी की बात बेहिचक करते हैं। कम उम्र के बच्चे इसका सही मायने समझे बिना इस सोसायटी का हिस्सा बनने की कोशिश करती हैं। फिल्में, टीवी सीरियल भी प्यार को अलग तरह से परिभाषित करते हैं। युगल के साथ को आज की जरूरत की तरह पेश करते हैं। बेटा हो या बेटी, इन सभी चीजों का प्रभाव उनके रहन-सहन, सोचने के ढंग पर असर डालता है। भटकाव की नौबत तक भी ले जाता है।
सुविधाएं दें मगर दुरूपयोग न होने दें
गोरखपुर यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्री दीपेंद्र मोहन सिंह ने कहा कि किशोरावस्था में बच्चों को सही-गलत की ज्यादा समझ नहीं होती। ऐसे में पूरी जिम्मेदारी अभिभावकों की होती है कि वे उन पर नजर रखें। उनकी हर गतिविधियों का मूल्यांकन करें। बच्चों के व्यवहार में बदलाव आने पर अभिभावक को काउंसिलिंग करानी चाहिए। मित्रवत व्यवहार रखते हुए उन्हें सही और गलत की पहचान करानी चाहिए। सुविधाएं देने में खराबी नहीं है, लेकिन ध्यान रखें कि उनका दुरुपयोग न हो। अशिक्षा और अनुशासन की कमी की वजह से भी ऐसे मामले सामने आते हैं।
पीड़िता शारीरिक-मानसिक तौर पर टूट जाती है
वरिष्ठ मानसिक रोग विशेषज्ञ डॉ. गोपाल अग्रवाल ने कहा कि दुष्कर्म का प्रभाव न केवल पीड़िता को शारीरिक रूप से, बल्कि मनोवैज्ञानिक रूप से भी प्रभावित करता है। यह पीड़िता के दिमाग पर कई तरीके से असर डालता है। प्रमुख है अवसाद, लेकिन सबसे खराब स्थिति में व्यक्तित्व विकार का विकास हो सकता है। वहीं, सबसे आम पीटीएसडी (पोस्ट ट्राउमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर) है।
पीड़िता के दृष्टिकोण से चाहे सामूहिक हो या एक एकल दुष्कर्म, मनोवैज्ञानिक आघात के समान है। ऐसे में अभिभावक को सब कुछ भूलकर अपने बच्चों की मानसिक स्थिति पर ध्यान देना चाहिए। कई बार डॉक्टर के पास पहुंचने पर इतनी देरी कर देते है कि मर्ज ही बढ़ जाता है। दवाओं और काउंसिलिंग की मदद से ऐसे मरीजों को उबारा जा सकता है। मरीज की जरूरत के हिसाब से उन्हें सलाह दी जाती है।
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