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क्रूरता पर बोले साहित्यकार: जरूरत से ज्यादा छूट बच्चों के लिए खतरनाक, TV, इंटरनेट के कंटेंट पर भी पाबंदी जरूरी

अमर उजाला ब्यूरो, गोरखपुर। Published by: vivek shukla Updated Wed, 31 May 2023 03:57 PM IST
सार

समाज की मानसिकता व पुरुष वर्चस्व भी इस हत्या का जिम्मेदार है। समाज बचपन से ही लड़कों के दिमाग में जो श्रेष्ठता ग्रंथि विकसित करा देता है। वही ग्रंथि लड़कों को उग्र बना रही है। दोष उम्र का भी है जो सही मार्गदर्शन न पाकर गलत दिशा की ओर मुड़ जाता है।

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गोरखपुर के साहित्यकार - फोटो : अमर उजाला।

विस्तार
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नाबालिग बच्चियों को बरगला कर उनके साथ गलत काम और क्रूरता जैसी घटनाओं के लिए सिर्फ कोई एक व्यक्ति, समूह या कोई विशेष तंत्र ही दोषी नहीं है बल्कि इसके बहुत से कारक हैं। निरंतर इस तरह की बढ़ रही घटनाओं से चिंतित साहित्यकारों का कहना है कि समाज को भी अभिभावक की भूमिका में आना होगा। कुछ गलत होता देख हस्तक्षेप की आदत डालनी पड़ेगी। एकाकी सोच छोड़नी होगी। वहीं, अभिभावकों को भी अपने बच्चों को जरूरत से ज्यादा छूट देने या फिर भरोसा जताने की आदत बदलनी होगी। उन्हें नैतिकता, अपनी संस्कृति और परंपरा की भी जानकारी देनी होगी।



सोशल मडिया, सीरियल, फिल्में बड़ी वजह
साहित्यकार रंजना जयसवाल ने कहा कि आजकल किशोरों में एक से अधिक से दोस्ती, लव आदि का फैशन चल पड़ा है। सोशल मीडिया, सीरियल्स, फिल्में भी लव, सेक्स, हिंसा यही सब कुछ परोस रही हैं। जिसका प्रभाव नई पीढ़ी पर कुछ ज्यादा ही पड़ रहा है। कॅरियर के नाम पर घर से मिली आजादी और अभिभावकों का अपने बच्चों पर जरूरत से ज्यादा भरोसा उन्हें इनके लिए प्रोत्साहित कर रहा है।


कहा कि दुष्परिणाम दिल्ली जैसी दिल दहला देने वाली घटना के रूप में सामने आ रहा है। समाज की मानसिकता व पुरुष वर्चस्व भी इस हत्या का जिम्मेदार है। समाज बचपन से ही लड़कों के दिमाग में जो श्रेष्ठता ग्रंथि विकसित करा देता है। वही ग्रंथि लड़कों को उग्र बना रही है। दोष उम्र का भी है जो सही मार्गदर्शन न पाकर गलत दिशा की ओर मुड़ जाता है। इसके लिए अभिभावक, परिवार, समाज, वातावरण, संगति सब जिम्मेदार हैं।


 

परिवार-समाज का बुनियाद ढांचा हुआ कमजोर

साहित्यकार अजय सिंह ने कहा कि हमारे सामाजिक परिवेश में कई तरह की असमानताएं और असुरक्षा मौजूद हैं। साथ ही टीवी-मोबाइल और इंटरनेट की दुनिया ने एक रंगीन दुनिया सजा रखी है। बाल मन इससे बहुत ज्यादा प्रभावित हो रहा है। परिवार का प्रशिक्षण बुनियादी तौर पर कमजोर हुआ है। ऐसे में कोई स्वप्न सरीखी दुनिया पाने के लिए भागना नितांत स्वाभाविक है, लेकिन बेहद खतरनाक भी, क्योंकि सब तरफ शिकारी बैठे हैं। परिवार और समाज का बुनियादी ढांचा ठीक करना होगा नहीं तो इस तरह की घटनाओं को रोक पाना बिल्कुल संभव नहीं होगा।

 

पढ़ाई के साथ नैतिक विकास भी जरूरी

साहित्यकार देवेंद्र आर्य ने कहा कि हमारे समाज में शिक्षा का अर्थ केवल स्कूली परीक्षा पास करने तक सीमित होता जा रहा है। नाबालिग बच्चियों को बरगला कर उनका शोषण, उन्हें अंधेरी गलियों में छोड़ देना या फिर दिल्ली जैसी घटना रोज़ देश के हर इलाके में घट रही है। इसे केवल कानून व्यवस्था की कमज़ोरी का या टीनएज आक्रामकता का मामला मान कर नहीं सुलझाया जा सकता है। जब तक सोच नहीं बदलेगी, कोई बदलाव नहीं होगा। हमारी नैतिकता का लगातार क्षरण हो रहा है। हम अपने बच्चों को ज्यादा से ज्यादा भौतिक सुविधाएं देने में जुटे हैं। मगर उनमें नैतिकता का विकास कैसे होगा, इसपर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। यह अत्यंत दुखद है।


 

लड़कों को समझाएं स्त्री का वजूद

साहित्यकार सतविंदर कौर ने कहा कि महिला सशक्तिकरण के इस दौर में एक लड़का किसी लड़की को सिर्फ इसलिए बर्बरता पूर्वक मार देता है क्योंकि वह लड़की उससे रिश्ता नहीं रखने का फैसला करती है। नाबालिग बच्चियों को बरगलाकर उनके साथ गलत करना या साक्षी के साथ हुई घटना पहली या हाल-फिलहाल की नहीं है। लंबे समय से यह सिलसिला चल रहा है। घटनाएं हो रही हैं मगर, इस दिशा में कोई गंभीरता से नहीं सोच रहा। हम आज भी अपने लड़कों को मानसिक रूप से इतना विकसित नहीं कर पाए हैं कि वह समझ सकें कि स्त्री का भी अपना एक अलग वजूद होता है। यह लड़कों को समय रहते समझाने का दायित्व मां-बाप का है।



 
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