Hindi News
›
Entertainment
›
Movie Reviews
›
Bholaa Movie Review and Rating in Hindi Ajay Devgn Tabu Lokesh Kanagaraj Kaithi Sanjay Mishra Vineet Kumar
{"_id":"6424fb6e3f52cb8ec402b449","slug":"bholaa-review-in-hindi-by-pankaj-shukla-ajay-devgn-tabu-lokesh-kanagaraj-kaithi-sanjay-mishra-vineet-kumar-2023-03-30","type":"wiki","status":"publish","title_hn":"Bholaa Review: ‘कैथी’ की आत्मा नहीं समझ पाए अजय देवगन, जॉन विक की नकल करता नजर आया ‘भोला’","category":{"title":"Movie Reviews","title_hn":"मूवी रिव्यूज","slug":"movie-review"}}
Bholaa Review: ‘कैथी’ की आत्मा नहीं समझ पाए अजय देवगन, जॉन विक की नकल करता नजर आया ‘भोला’
अजय देवगन
,
तब्बू
,
दीपक डोबरियाल
,
विनीत कुमार
,
किरन कुमार
,
गजराज राव
,
अमला पॉल
,
संजय मिश्रा
और
अभिषेक बच्चन
लेखक
आमिल कीयान खान
,
अंकुश सिंह
,
संदीप केवलानी
और
श्रीधर दुबे (लोकश कनगराज की लिखी ‘कैथी’ पर आधारित)
निर्देशक
अजय देवगन
निर्माता
अजय देवगन
,
भूषण कुमार
,
कृष्ण कुमार
,
एस आर प्रकाशबाबू
और
एस आर प्रभु आदि
रिलीज:
30 मार्च 2023
रेटिंग
2/5
अभिनेता के रूप में अजय देवगन ने जो अपना प्रशंसक वर्ग बनाया है, उसकी टक्कर का प्रशंसक वर्ग हिंदी सिनेमा में उनके समकालीन अभिनेताओं में सिर्फ शाहरुख खान का ही बचा है। शाहरुख खान की फिल्म ‘पठान’ ने साल के शुरू में ही ये जता दिया कि हिंदी सिनेमा के दर्शक भी अब अपने बीच के सितारों को खतरनाक एक्शन और दिल दहला देने वाले स्टंट करते देखना चाहते हैं। बीते हफ्ते रिलीज हुई ‘जॉन विक 4’ को भारत में मिली करिश्माई ओपनिंग ने भी इस संकेत को दोहराया। अपनी पिछली फिल्म ‘दृश्यम 2’ में रीमेक के राजा बने अजय देवगन ने इस फिल्म के निर्देशक अभिषेक पाठक से अगर कुछ सीखा होता तो फिल्म ‘भोला’ एक कमाल की फिल्म बन सकती थी। लोकेश कनगराज की सुपरहिट फिल्म ‘कैथी’ की इस हिंदी रीमेक का जब पहला टीजर थ्रीडी में सिनेमाघर में दिखाया गया तो वहां अजय देवगन भी मौजूद थे। मैंने उनसे पूछा कि फिल्म उन्होंने थ्रीडी में शूट की है या टूडी में शूट करके इसे थ्रीडी में बदला गया है? अजय देवगन का जवाब था, ‘अब थ्रीडी में कहां शूट होती हैं फिल्में?’ वैसे फिल्म ‘भोला’ को थ्रीडी में रिलीज करने की जरूरत फिल्म देखने के बाद महसूस नहीं होती। और, फिल्म की मूल कहानी में जो फेरबदल अजय देवगन ने इसकी हिंदी रीमेक में किए हैं, जरूरत उनकी भी महसूस नहीं होती।
भोला रिव्यू
- फोटो : अमर उजाला, मुंबई
भूगोल में गोल हुई मूल कहानी
फिल्म ‘भोला’ का सार वही है जो फिल्म ‘कैथी’ का है। 10 साल बाद जेल से छूटा एक कैदी अनाथालय में पल रही अपनी बेटी से मिलने के लिए निकलता है तो रास्ते में उसे पुलिस उठा लेती है। इलाके के सारे पुलिसवाले एक बड़े अफसर की रिटायरमेंट पार्टी में शरीक होने आते हैं। वहां पुलिस का वह जत्था भी पहुंचता है जिसने उसी दिन 1000 करोड़ रुपये का नशे का सामान जब्त किया है। नशीले पदार्थों की तस्करी करने वालों को पुलिस का ही एक बड़ा अफसर कमीशन के लालच में इसका ठिकाना बताने का सौदा करता है। सौदा तय होते ही पार्टी में बंट रही शराब में एक घातक रसायन मिला दिया जाता है। सारे पुलिस अधिकारी व कर्मचारी मरणासन्न हो जाते हैं। सिवाय फिल्म की हीरोइन के। उसने एंटीबॉयोटिक ले रखी है सो शराब नहीं पी सकती। जेल से छूटे कैदी को इन सभी को नजदीकी अस्पताल पहुंचाने की जिम्मेदारी मिलती है। वह ट्रक लेकर निकलता है तो रास्ते भर उन पर हमले होते रहते हैं। वजह है ट्रक में मौजूद महिला पुलिस अफसर और उसकी वह टीम जिसने मादक पदार्थों का जखीरा जब्त किया है। उनको मार कर लाने वालों के लिए मोटी रकम का खुला एलान हो चुका है और सूबे का हर गिरोह इसे हासिल करना चाहता है। इस पूरे घटनाक्रम में भूगोल उत्तर प्रदेश के लालगंज और ऊंचाहार का है और फिल्म देखकर साफ पता चलता है कि इसे बनाने वालों में से शायद ही किसी ने कभी लखनऊ के इस निकटवर्ती इलाके में कदम भी रखा हो।
भोला रिव्यू
- फोटो : अमर उजाला, मुंबई
उत्तर प्रदेश में अपराधियों का नंगा नाच
फिल्म ‘कैथी’ की मूल आत्मा फिल्म ‘भोला’ से गायब है। एक देहाती किस्म का इंसान यहां स्टाइलिश बदमाश बन जाता है। मूल फिल्म में न तो इस इंसान की पृष्ठभूमि का खुलासा किया गया है और न ही उसकी प्रेम कहानी के बारे में ही बात होती है। एक रहस्यमयी इंसान के पुलिस की मदद करने की कहानी फिल्म ‘भोला’ में रहस्यमयी नहीं रहती। फिल्म शुरू होते ही राय लक्ष्मी के आइटम नंबर के चक्कर में पटरी से उतर जाती है। जिन लोगों ने हाल ही में रिलीज ‘जॉन विक 4’ देखी होगी, उन्हें फिल्म ‘भोला’ उस फिल्म का सस्ता हिंदी संस्करण लग सकती है। लेकिन ‘जॉन विक’ की दुनिया सिर्फ अपराध की दुनिया है, वहां पुलिस और आम जनता कहानी का हिस्सा नहीं है, वह वीडयो गेम सरीखी कहानी है। यहां कहानी का दूसरा मूल सूत्र ही पुलिस है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहां अपराधियों के पंख फड़फड़ाते ही इन दिनों बुलडोजर चल जाता है वहां पूरी रात हिंसा का ऐसा तांडव कल्पना से परे की बात लगती है।
भोला रिव्यू
- फोटो : अमर उजाला, मुंबई
ऊंचाहार के काल्पनिक जंगलों में भटके संवाद
फिल्म ‘भोला’ की पटकथा में इतने झोल हैं कि ये लालगंज जाने के लिए ऊंचाहार के जंगलों से होकर जाती है और इसके किरदार वहां की अवधी बोलने की बजाय भोजपुरी बोलने लगते हैं। संवाद जलेबी की तरह गोल गोल हैं। भारी भारी शब्द डालकर उनमें वजन डालने की कोशिशें इसी के चलते खोखली लगती हैं। एक गुंडा बोलता है, ‘शेरों के संविधान में समझौता नहीं होता।’ हीरोइन कहती हैं, ‘बंदूक की नौकरी की है तो गोली तो खानी ही पड़ेगी।’ लेकिन पूरी फिल्म में तालियां बजती हैं तो तब, जब असहाय हवलदार का हथौड़ा छोटे खलनायक यानी अश्वत्थामा के सिर से टकराता है। ‘भोला’ खुद को बार बार आम आदमी बताता है लेकिन उसके अतीत की कहानी उसे शहर का छिछोरा साबित करती है। फिल्म ये भी जताने की कोशिश करती है कि भोला का अपने इलाके में ही नहीं बल्कि समंदर की लहरों तक आतंक रहा है। कथा, पटकथा और संवाद के स्तर पर कमजोर पड़ी ‘भोला’ में शुरू से लेकर आखिर तक इतना वीभत्स रस है कि उसके आगे न तो इसका हास्य गुदगुदा पाता है और ना ही इसके वात्सल्य और करुणा रस ही दर्शकों को भावुक कर पाते हैं।
भोला रिव्यू
- फोटो : अमर उजाला, मुंबई
नाम भोला, खाना थाल भर गोश्त
रामनवमी के दिन रिलीज हो रही फिल्म ‘भोला’ में इसका भूखा नायक थाल भर गोश्त खाता दिखता है। मूल फिल्म में इसी दृश्य में नायक थाली भर चावल खाता है। इस एक सीन से ‘कैथी’ में कहानी के नायक की पुलिसवालों से नफरत स्थापित होती है। मरने की कगार पर पहुंच चुके पुलिसवालों को ट्रक में चढ़ाने में ये कैदी मदद नहीं करता है। वह उनकी दावत के लिए बनी पूरी बिरयानी अकेले खाता दिखता है। संदेश साफ है कि व्यवस्था के खिलाफ भरी नफरत। लेकिन बार बार माथे पर भस्म लगाने वाला ‘भोला’ काशी में जनेऊ पहनकर पूजा करता दिखता है और यहां उसके थाल भर गोश्त खाने का मकसद स्थापित करने में फिल्म विफल रहती है।1000 करोड़ रुपये की हेरोइन पकड़ने वाले दस्ते का मुखिया मूल फिल्म में पुरुष पुलिस अफसर है यहां तब्बू को फिल्म में लाने के लिए उसे आईपीएस अफसर डायना बना दिया गया है। तब्बू की फिल्म में एंट्री जानदार हो इसके लिए खासतौर से एक एक्शन दृश्य भी रखा गया है लेकिन इस दृश्य का संयोजन ऐसा है कि ये किसी तरह का धमाकेदार असर पैदा नहीं कर पाता। ‘यू मी और हम’, ‘शिवाय’ और ‘रनवे 34’ के बाद अजय देवगन के निर्देशन में बनी चौथी फिल्म ‘भोला’ ये भी साबित करती है कि अभिनेता अजय देवगन भले कमाल के हों, लेकिन निर्देशन की जिद उन्हें अब छोड़ देनी चाहिए। वह फिल्म को समग्र कहानी के बजाय टुकड़ों में सोचते हैं। फिल्म इसीलिए टुकड़ों टुकड़ों में ही प्रभावित करती है लेकिन एक संपूर्ण सिनेमा का एहसास उनके निर्देशन में बनी फिल्मों में नहीं आ पा रहा है।
भोला रिव्यू
- फोटो : अमर उजाला, मुंबई
संजय मिश्रा का हथौड़ा सबसे ज्यादा कामयाब
फिल्म ‘विजयपथ’ से तब्बू के साथ बनी अजय देवगन की जोड़ी पिछली दो फिल्मों में सफल रही है। फिल्म ‘भोला’ इस गुमान को भी तोड़ती है। दोनों के बीच दर्द का रिश्ता जोड़ने के लिए दोनों की अपने बच्चों को लेकर आपसी बातचीत जो रखी गई है, उसका कोई अर्थ कहानी में नहीं है। भोला की प्रेम कहानी भी सिर्फ फिल्म की गति में अवरोधक बनकर ही आती है। अभिनय के मामले में अजय देवगन और तब्बू के अलावा संजय मिश्रा ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। गजराज राव और दीपक डोबरियाल ने पूरी फिल्म में सिर्फ ओवर एक्टिंग की है। विनीत कुमार का निठारी का किरदार जरूर आतंक का पर्याय बन सकता था लेकिन उसे ठीक से विकसित ही नहीं किया गया। वह पुलिसवालों का ‘भोजन’ करता है लेकिन नाम निठारी होने के बावजूद इस शब्द की दहशत फिल्म में स्थापित नहीं होती। खून खराबा पसंद करने वालों के लिए फिल्म के क्लाइमेक्स में भोला का तांडव रखा गया है जिसमें वह त्रिशूल से दुश्मनों का सफाया करता दिखता है। लेकिन, मामला यहां भी जमता नहीं है।
भोला रिव्यू
- फोटो : अमर उजाला, मुंबई
एक्शन के अलावा और कुछ नहीं
फिल्म ‘भोला’ की अधिकतर शूटिंग रात की है और इन दृश्यों का असर पैदा करने के लिए सिनेमैटोग्राफर असीम बजाज ने जो मेहनत की है, वह फिल्म के थ्रीडी कनवर्जन के बाद अपना प्रभाव खो देती है। आर पी यादव ने फिल्म के एक्शन दृश्य रचने में खासी मेहनत की है और ये फिल्म को आगे बढ़ान में थोड़ी बहुत मदद भी करते हैं। लेकिन, फिल्म में एक्शन के अलावा कुछ और है भी नहीं। संगीत विभाग में भी फिल्म फेल है। फिल्म का कोई भी गाना गुनगुनाने भर को भी याद नहीं रहता। इंटरवल से ठीक पहले बी प्राक की आवाज में बजे जिस गाने से फिल्म देख रहे दर्शकों की भावनाओं में उफान लाने की कोशिश की गई, वह भी विफल ही रहती है। बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म का सबसे बड़ा कमजोर पहलू है और ये फिल्म देखने के अनुभव को बहुत ज्यादा खराब करता है। दो घंटे 24 मिनट लंबी ये फिल्म कम से कम 20 मिनट छोटी हो सकती है और तब शायद इसका असर इससे तो बेहतर ही होता।
एड फ्री अनुभव के लिए अमर उजाला प्रीमियम सब्सक्राइब करें
Disclaimer
हम डाटा संग्रह टूल्स, जैसे की कुकीज के माध्यम से आपकी जानकारी एकत्र करते हैं ताकि आपको बेहतर और व्यक्तिगत अनुभव प्रदान कर सकें और लक्षित विज्ञापन पेश कर सकें। अगर आप साइन-अप करते हैं, तो हम आपका ईमेल पता, फोन नंबर और अन्य विवरण पूरी तरह सुरक्षित तरीके से स्टोर करते हैं। आप कुकीज नीति पृष्ठ से अपनी कुकीज हटा सकते है और रजिस्टर्ड यूजर अपने प्रोफाइल पेज से अपना व्यक्तिगत डाटा हटा या एक्सपोर्ट कर सकते हैं। हमारी Cookies Policy, Privacy Policy और Terms & Conditions के बारे में पढ़ें और अपनी सहमति देने के लिए Agree पर क्लिक करें।