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Gold Review: देश पर गौरव करने का मौका देती है अक्षय कुमार की 'गोल्ड'

रवि बुले Updated Wed, 15 Aug 2018 06:00 PM IST
Akshay kumar film gold movie review
gold
निर्माताः एक्सेल एंटरटेनमेंट

निर्देशकः रीमा कागती
सितारेः अक्षय कुमार, मौनी रॉय, अमित साध, कुणाल कपूर, विनीत कुमार सिंह
रेटिंग ***
 
रीमा कागती की गोल्ड के लिए यह बिल्कुल सही समय है। स्वतंत्रता दिवस की गर्वीली भावनाएं और सामने खड़ा खेलों का नया मौसम, एशियाई खेल। चक दे इंडिया (2007) और सूरमा (2018) के बाद गोल्ड हॉकी मैदान एक और कहानी है। वह खेल जिसमें कभी दुनिया में भारत की तूती बोलती थी। 1948 से पहले के खेल इतिहास में हमारी टीमें ब्रिटिश इंडिया के नाम से उतरती थी और जीतने पर गोरों का ध्वज फहराता था। परंतु गोल्ड 1948 के लंदन ओलंपिक खेलों में भारतीय टीम द्वारा अंग्रेजों को उन्हीं के मैदान पर पीटने की कहानी है। जब पहली बार अंतरराष्ट्रीय खेल मंच पर भारतीय तिरंगा फहराया। यह ऐसी हकीकत है, जिसके सच होने के पीछे कई अफसाने हैं। रीमा ने उन्हीं अफसानों और सपनों को जोड़ कर फिल्म रची है।

 

Akshay kumar film gold movie review
Akshay Kumar
गोल्ड तपन दास (अक्षय कुमार) और 1936 में बर्लिन (जर्मनी) ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम के साथ शुरू होती है। जीतते भारतीय हैं और मैदान में झंडा ब्रिटेन का फहराता है। अब सबका सपना है कि जीतने पर भारत के ध्वज को सलामी मिले। तपन इस टीम का जूनियर मैनेजर है। कुछ वर्षों में विश्वयुद्ध छिड़ जाता है और 1940 और 1944 के ओलंपिक रद्द हो जाते हैं। 1946 आते-आते तय होता है कि 1948 में ओलंपिक होंगे और तपन दास फिर से हॉकी एसोसिएशन से जुड़ कर टीम बनाने की तैयारी में लग जाता है। जब तक टीम बनती है तब तक देश का विभाजन हो जाता है और आधे खिलाड़ी पाकिस्तान चले जाते हैं। अब क्या होगा? क्या बेहद कम समय में टीम बन पाएगी और आजाद भारत के लिए स्वर्ण पदक जीतने का सपना पूरा होगा?
 

Akshay kumar film gold movie review
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गोल्ड सपना सच होने की कहानी है। फिल्म को रीमा ने टीम के साथ विस्तार से लिखा और ऐतिहासिक स्थितियों को बारीकियों से फिल्माया है। यहां घटनाओं का फैलाव है। इसलिए फिल्म की लंबाई 154 मिनट हो गई है। तपन दास का किरदार रोचक है परंतु उसे शराब की लत से जोड़ कर ड्रामाई बनाया गया है। फिल्म में अक्षय पर फोकस है। एक रियासत के हॉकी खेलने वाले राजकुमार के रूप में अमित साध और ध्यानचंद उर्फ सम्राट बने कुणाल कपूर को भी पर्याप्त जगह मिली है। विनीत कुमार सिंह ने अपनी भूमिका अच्छे से निभाई है। तपन की पत्नी के रूप में मौनी रॉय ठीक लगीं।

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हालांकि उनकी भूमिका कहानी में विशेष उल्लेखनीय नहीं है। निर्देशक ने 1940 का दशक उभारने के लिए सबसे ज्यादा उस वक्त की वेशभूषा की मदद ली। हॉकी के दृश्य सहज हैं और इन्हें भावनाओं के साथ अच्छे ढंग से पिरोया गया है। निर्देशक ने गीत-संगीत की जगह निकालनी परंतु उसका विशेष इस्तेमाल नहीं हो सका। संगीतमय मौके यहां कहानी की मदद नहीं करते और न ही सुनने में प्रभावी हैं। यह कह सकते हैं कि गोल्ड अक्षय कुमार के देशभक्ति ब्रांड वाला ही सिनेमा है। अक्षय और देशभक्ति ब्रांड आपको पसंद है तो फिल्म आपके लिए है।
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