नौ नंवबर को राज्य 21 साल का होने के साथ पूर्णरूप से वयस्क हो गया है। लेकिन इतने सालों में भी आपदा प्रबंधन और विकास के मॉडल पर राज्य की स्थिति चिंताजनक ही दिखती है। पर्वतीय राज्य होने के बावजूद विकास का टिकाऊ मॉडल हम आज तक विकसित नहीं कर पाए हैं। राज्य में हर वर्ष किसी न किसी रूप में आपदाएं हमारे सम्मुख आ जाती हैं, हम उनसे निपटने में लग जाते हैं। समय गुजरता है और फिर हम इन्हें भूल जाते हैं। जानकार बताते हैं कि पर्वतीय प्रदेश के विकास का मॉडल मैदान से कभी मेल नहीं खा सकता है। जबकि नीति-नियंताओं की ओर से लगातार मैदान का विकास मॉडल पहाड़ों पर थोपा जा रहा है।
खतरे को भांपने के बाद भी लगातार बनाई जा रहीं बड़ी परियोजनाएं
चौड़ी सड़कें, ऊंची-ऊंची इमारतें, नदियों के किनारे होटल, रिजॉर्ट, बड़ी परियोजनाएं खतरे को भांपने के बाद भी लगातार बनाई जा रही हैं। वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (एनआईडीएम) की टीमों ने दो बार आपदाग्रस्त क्षेत्र का दौरा करने के साथ ही रिमोट सेंसिंग, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी, राज्य आपदा न्यूनीकरण केंद्र और भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग जैसी विभिन्न विशेषज्ञ ऐजेंसियों के सहयोग से तीन चरणों में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। जिसमें केदारनाथ आपदा से सबक लेने के लिए 19 सिफारिशों का जिक्र किया गया था।
राज्य स्थापना दिवस: उत्तराखंड गठन के बाद सात जिलों में बढ़ा और छह में घटा वन आवरण
इस रिपोर्ट में जलविद्युत परियोजनाओं से जमीन धंसने, जल श्रोत सूखने और जन-जीवन प्रभावित होने के साथ ही वन्य-जीवन और पर्यावरण दूषित होने का जिक्र किया गया था। रिपोर्ट में कहा गया था कि उत्तराखंड जैसे संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पर्यावरण प्रभाव का आकलन बाध्यकारी होना चाहिए।
एनआईडीएम की रिपोर्ट में भूस्खलन जोनेशन मैपिंग को प्राथमिकता के आधार पर कराए जाने, निर्माण कार्यों में विस्फोटों के प्रयोग पर रोक, सड़क निर्माण में वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर, ढलानों के स्थिरीकरण के ठोस प्रयास व ग्लेशियल लेक और नदी प्रवाह निगरानी का ठोस ढांचा तैयार करने की सिफारिश भी की गई थी।
पर्यावरण संबंधी अनुसंधानों में संलग्न संस्था ‘काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर’ (सीईईडब्लु) की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड में 1970 की अलकनंदा बाढ़ के बाद त्वरित बाढ़, भूस्खलन, बादल फटने, हिमनद झीलों के फटने और बिजली गिरने आदि आपदाओं में चार गुना वृद्धि हुई है। इन आपदाओं के खतरे में राज्य के 85 प्रतिशत जिलों की 90 लाख से अधिक आबादी आ गई है। रिपोर्ट में इन आपदाओं का कारण पर्यावरण की उपेक्षा बताया गया है।
मौसम परिवर्तन से संबंधित जो आपदाएं आ रही हैं और जिनके आने की संभावना है, उन्हें ध्यान में रखकर विकास की योजनाएं बननी चाहिए। लेकिन, बदकिस्मती से ऐसा नहीं हो रहा है। भविष्य की आपदाओं को देखते हुए हमारी तैयारियां कहीं नहीं दिखाई देती हैं। आपदा प्रबंधन सुस्त नजर आता है। उत्तराखंड आपदाओं वाला प्रदेश हैं, यहां इन बातों का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए।
- डॉ. रवि चोपड़ा, पर्यावरणविद
देश में जो भी वैज्ञानिक संस्थान, प्रशासनिक संस्थान हैं, इनकी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। उत्तराखंड में दो दिन लगातार हुई बारिश की अगर बात करें तो यहां वैज्ञानिक संस्थान ने तो अपनी जिम्मेदारी पूर्वानुमान जारी कर पूरी कर दी, लेकिन प्रशासनिक हिलाहवाली दिखाई देती है। इसके अलावा भविष्य की आपदाओं को देखते हुए अभी से नदियों के किनारों को पूरी तरह खाली करना होगा। ताकि आने वाली आपदाओं से बचा जा सके।
- डॉ. एके बियानी, भूगर्भशास्त्री, पूर्व प्राचार्य डीबीएस पीजी कॉलेज
उत्तराखंड में हाल में आई आपदाएं चाहे वह फरवरी में सर्दियों में ग्लेश्यिर टूटने से ऋषि गंगा में आई बाढ़ हो, पिछले साल सर्दियों के मौसम में जंगल जलने की घटना हो या हाल में अति वर्षा के कारण हुई हानि हो, यह सब ग्लोबल वॉर्मिंग की ओर इशारा करती हैं। दो माह पहले ही यूएन की आईपीसीसी संस्था ने विश्व भर को पर्यावरिणीय चिंताओं से अवगत कराया है। इस रिपोर्ट में हिमालय को लेकर विशेष रूप से चेतावनी दी गई है। हम विकास की योजनाएं बनाते हुए पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र का ध्यान नहीं रख रहे हैं, जिस डाल पर बैठे हैं, उसी को काटने पर आमादा हैं। अब भी नहीं संभले तो आने वाले समय में और भी बड़ी त्रासदियां झेलने के लिए तैयार रहना होगा। नीति-नियंताओं को विकास की दीर्घकालिन योजनाएं बनानी होंगी। तभी इस प्रकार की घटनाओं से बचा जा सकता है।
- डॉ. हेमंत ध्यानी, पर्यावरणविद एवं सदस्य हाईपावर कमेटी, चारधाम परियोजना
पूर्व में घटित आपदाओं से हमने कोई सबक नहीं लिया। यह आपदाएं क्लाइमेट चेंज और मानवीय भूल का परिणाम हैं। अभी तक हम लोग मध्य हिमालय व राज्य की आवश्यकता के अनुरूप आपदा प्रबंधन और न्यूनीकरण का अचूक सिस्टम विकसित नहीं कर पाए हैं। आपदा राहत मानकों में राज्य की आर्थिक और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है।
- किशोर उपाध्याय, वनाधिकार आंदोलन के संस्थापक
- वर्ष 2001: फाटा और ब्यूंग गाड़ भूस्खलन में 21 लोग मारे गए थे
- वर्ष 2002: बूढ़ाकेदार भू-स्खलन में 28 व्यक्ति मारे गए थे
- वर्ष 2003: 18 अगस्त को भारत-नेपाल सीमा पर काली घाटी में भू-स्खलन के कारण 250 से अधिक व्यक्ति मारे गए थे
- कैलाश मानसरोवर यात्रा के 12वें दल के अधिकांश सदस्यों की मृत्यु हुई, प्रसिद्ध नृत्यांगना प्रोतिमा बेदी मरने वालों में शामिल थीं
- वर्ष 2005: गोविंदघाट भू-स्खलन में 11 लोग मारे गए थे
- वर्ष 2008: 17 जुलाई को पिथौरागढ़ में थल से दिल्ली जा रही बस में चंपावत जनपद में सूखीढांग के निकट आमरू बैंड (राष्ट्रीय राजमार्ग 125) पर भू-स्खलन से 17 व्यक्तियों की मृत्यु हुई थी
- वर्ष 2009: पिथौरागढ़ की मुनस्यारी तहसील में ला-झेकला, चाचना व रूमीडाला में हुए भू-स्खलन के कारण 43 व्यक्तियों की मृत्यु
- वर्ष 2010: में अल्मोड़ा शहर के नजदीक स्थित बाल्टा व देवली में भू-स्खलन के कारण 36 व्यक्तियों की मृत्यु
- बागेश्वर की कपकोट तहसील के अंतर्गत सुमगढ़ में प्राथमिक के भू-स्खलन के चपेट में आने से 18 विद्यार्थियों की मृत्यु
- भूस्खलन के कारण रुद्रप्रयाग जनपद के किमाणा व गिरिया में 69 व्यक्तियों की मृत्यु
- वर्ष 2012: उत्तरकाशी जनपद में असीगंगा में भू-स्खलन के कारण रूके पानी के रिसाव से आई बाढ़ में 32 व्यक्तियों की मृत्यु
- वर्ष 2013: में केदारनाथ सहित मंदाकिनी घाटी के कई शहरों व गांवों में भारी विनाश चार हजार से अधिक व्यक्ति मारे गए या लापता हुए थे, 14 व 15 अगस्त को पौड़ी गढ़वाल की यमकेश्वर तहसील के विभिन्न स्थानों पर भारी वर्षा के साथ हुए भूस्खलन में 14 व्यक्तियों की मृत्यु हुई थी
- वर्ष 2016: जनपद देहरादून में त्यूनी में हुए भू-स्खलन से 10 व्यक्तियों की मृत्यु हुई थी, पिथौरागढ़ जनपद की मुनस्यारी व बेरीनाग तहसीलों में बस्तड़ी, नौला रिंगोलिया, चर्मा व नाचनी में हुए भू-स्खलन के कारण 25 व्यक्तियों को मृत्यु हुई थी
-वर्ष 2021 फरवरी में चमोली जिले में ग्लेश्यिर टूटने से धौलीगंगा-ऋषिगंगा में आई बाढ़ में दो सौ से अधिक लोगों की मौत हुई थी, ऋषिगंगा प्रोजेक्ट को बड़ा नुकसान हुआ था
- मानसून सीजन के खत्म होने के बाद अक्तूबर माह में तीन दिन भारी बारिश के बाद 72 लोग मारे गए थे
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नौ नंवबर को राज्य 21 साल का होने के साथ पूर्णरूप से वयस्क हो गया है। लेकिन इतने सालों में भी आपदा प्रबंधन और विकास के मॉडल पर राज्य की स्थिति चिंताजनक ही दिखती है। पर्वतीय राज्य होने के बावजूद विकास का टिकाऊ मॉडल हम आज तक विकसित नहीं कर पाए हैं। राज्य में हर वर्ष किसी न किसी रूप में आपदाएं हमारे सम्मुख आ जाती हैं, हम उनसे निपटने में लग जाते हैं। समय गुजरता है और फिर हम इन्हें भूल जाते हैं। जानकार बताते हैं कि पर्वतीय प्रदेश के विकास का मॉडल मैदान से कभी मेल नहीं खा सकता है। जबकि नीति-नियंताओं की ओर से लगातार मैदान का विकास मॉडल पहाड़ों पर थोपा जा रहा है।
खतरे को भांपने के बाद भी लगातार बनाई जा रहीं बड़ी परियोजनाएं
चौड़ी सड़कें, ऊंची-ऊंची इमारतें, नदियों के किनारे होटल, रिजॉर्ट, बड़ी परियोजनाएं खतरे को भांपने के बाद भी लगातार बनाई जा रही हैं। वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (एनआईडीएम) की टीमों ने दो बार आपदाग्रस्त क्षेत्र का दौरा करने के साथ ही रिमोट सेंसिंग, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी, राज्य आपदा न्यूनीकरण केंद्र और भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग जैसी विभिन्न विशेषज्ञ ऐजेंसियों के सहयोग से तीन चरणों में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। जिसमें केदारनाथ आपदा से सबक लेने के लिए 19 सिफारिशों का जिक्र किया गया था।
राज्य स्थापना दिवस: उत्तराखंड गठन के बाद सात जिलों में बढ़ा और छह में घटा वन आवरण
इस रिपोर्ट में जलविद्युत परियोजनाओं से जमीन धंसने, जल श्रोत सूखने और जन-जीवन प्रभावित होने के साथ ही वन्य-जीवन और पर्यावरण दूषित होने का जिक्र किया गया था। रिपोर्ट में कहा गया था कि उत्तराखंड जैसे संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पर्यावरण प्रभाव का आकलन बाध्यकारी होना चाहिए।