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1971 के युद्ध की गौरव गाथा: कर्नल चौहान ने घायल होने के बाद भी नहीं छोड़ी पोस्ट, दुश्मन के पांव उखाड़े
संवाद न्यूज एजेंस,हल्द्वानी
Published by: अलका त्यागी
Updated Mon, 05 Dec 2022 08:14 PM IST
सार
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घायल होने के बावजूद कुशल नेतृत्व और बहादुरी के लिए कर्नल मनोहर सिंह चौहान को राष्ट्रपति ने वीर चक्र से सम्मानित किया गया।
दुश्मन से घिरने के बावजूद सीमांत जिले पिथौरागढ़ के लाल कर्नल मनोहर सिंह चौहान ने हौसला नहीं छोड़ा और अपने कुशल नेतृत्व से जवानों के साथ ऐसा जवाबी हमला बोला कि दुश्मन को उल्टे पांव वापस लौटने को मजबूर होना पड़ा। घायल होने के बावजूद कुशल नेतृत्व और बहादुरी के लिए इन्हें राष्ट्रपति ने वीर चक्र से सम्मानित किया गया। 22 अगस्त 1971 को 21 साल की उम्र में मनोहर सिंह चौहान को सेकेंड लेफ्टिनेंट के पद पर चौथी गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन (1/4जी आर) में पोस्टिंग मिली।
मेजर बीएस रौतेला (सेवानिवृत्त) बताते हैं कि उनकी बटालियन जम्मू-कश्मीर के पुंछ जिले में 93 माउंटेन ब्रिगेड में गोलपुर सेक्टर में तैनात थी। इसी बटालियन की बी कंपनी की दो प्लाटून (नंबर 3 और नंबर 4) गोलपुर के उत्तर में 412 (अल्फा) लंगूर पोस्ट में तैनात थी। अलग-थलग होने की वजह से पोस्ट को किसी भी तरह की म्यूचुअल सपोर्ट नहीं मिल पाता था। पोस्ट बेहद अहम थी, क्योंकि इसे जीतने के बाद दुश्मन सीधा पुंछ शहर को कट ऑफ कर सकता था। बटालियन में इंडक्शन ट्रेनिंग पूरी करने के बाद सेकेंड लेफ्टिनेंट चौहान को बी कंपनी की नंबर 4 प्लाटून का प्लाटून कमांडर बनाकर 28 अक्तूबर 1971 को पोस्ट पर भेजा गया ।
तीन दिसंबर 1971 की शाम बटालियन हेडक्वार्टर से खबर मिली कि दुश्मन ने देश के पश्चिमी क्षेत्र में भी लड़ाई शुरू कर दी है। अंधेरा होते ही दुश्मन ने पूरे पुंछ सेक्टर में आर्टलरी और मोर्टार से फायरिंग शुरू कर दी। फायर सबसे ज्यादा दुर्गा और लंगूर पोस्ट पर किए जा रहे थे। दुश्मन की ओर से फायरिंग की मात्रा इतनी अधिक थी कि खाई से बाहर निकलना तो दूर देखना भी संभव नहीं हो पा रहा था। एचएमजी और एमएमजी में ट्रेसर टाउन (पथदर्शक गोली) इसकी वजह से पोस्ट के चारों ओर सूखी झाड़ियों और जंगल में आग लग गई। इसके चलते टेलीफोन के तार जल गए और दुश्मन ने रेडियो संचार भी जाम कर दिया। अंदेशा हो चुका था कि दुश्मन नंबर 3 या नंबर 4 प्लाटून पर हमला करेगा, लेकिन दुश्मन ने प्लाटून नंबर चार पर पीछे से हमला बोला। इसका अंदेशा नहीं था। सेकेंड लेफ्टिनेंट मनोहर सिंह चौहान नंबर 4 प्लाटून के फॉरवर्ड सेक्शन में मौजूद थे। दुश्मन ने कहा ‘तुम हमारे कब्जे में हो अपने हथियार डाल दो’ इतना सुनते ही 4 नंबर प्लाटून के सभी हथियारों से एक साथ फायर खोल दिया गया।
दो इंच मोर्टार के गोले भी दागे गए। इतनी भारी मात्रा में एक साथ फायर आने की उम्मीद दुश्मन को भी नहीं थी। सेकेंड लेफ्टिनेंट चौहान इसी दौरान फायर ट्रेंच का इस्तेमाल करते हुए नंबर 3 प्लाटून पहुंचे। वहां लगी एमएमजी को गेट की ओर कर फिक्स लाइन पर फायरिंग शुरू करा दी। इतनी भारी मात्रा में फायर देखकर दुश्मन के पैर उखड़ गए। उसके काफी सैनिक मारे गए या घायल हो गए। कुछ जो अंदर घुस आए थे, उन्हें गोरखा सैनिकों ने खुखरी से मौत की नींद सुला दिया।
एक फायर पोजीशन से दूसरी फायर पोजीशन पर जाते समय सेकेंड लेफ्टिनेंट चौहान बुरी तरह घायल हो गए। जवानों का हौसला कम ना हो इसलिए उन्होंने मोरफीन मोर्फिन का इंजेक्शन लगाने के साथ फर्स्ट फील्ड ड्रेसिंग का प्रयोग किया और मोर्चे पर डटे रहे। कंपनी के कुक, भिस्ती, मसालची, धोबी, बार्बर और यहां तक की एजुकेशन मास्टर भी एम्यूनेशन के बॉक्स ढोने के लिए लगातार खाई में रेंगते हुए जवानों तक गोला- बारूद पहुंचाते रहे। संचार व्यवस्था ठप होने से आर्टलरी या 3 इंच मोर्टार का फायर नहीं बुलाया जा सकता था। चौहान एक खंदक से दूसरे खंदक तक रेंगते हुए जाते रहे और जवानों का उत्साह बढ़ते हुए फायर डायरेक्ट करते रहे। तकरीबन 2 घंटे की भीषण लड़ाई के बाद दुश्मन ने पीछे हटना शुरू कर दिया था। इस बीच प्लाटूंस ने अपने घायलों को फर्स्ट ऐंड दी और एम्युनेशन बदला।
रात एक बजे और तीन बजे फिर दुश्मन ने बोला हमला
रात करीब एक बजे दुश्मन ने दूसरा और तीसरा हमला सुबह तकरीबन तीन बजे बोला। इन दोनों हमलों को भी नंबर चार प्लाटून के जवानों ने विफल कर कर दिया। इससे जवानों का हौसला और बुलंद हो गया। तीन से लेकर नौ दिसंबर तक दुश्मन लगातार आर्टिलरी, मोर्टार और आरसीएल फायर करता रहा, लेकिन उसकी आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं हुई।
सेना मेडल से भी हुए अलंकृत
कर्नल चौहान ने अपनी सर्विस के दौरान जम्मू कश्मीर, लेह, सिक्किम, राजस्थान, नागालैंड, मणिपुर और कच्छ में भी तैनात रहे। चार जून 1993 को कर्नल चौहान को 31 असम राइफल का कमांडिंग अफसर नियुक्त किया गया। यहां उन्होंने कई उग्रवादी कैंप बर्बाद किए गए और बड़ी संख्या में उग्रवादियों का खात्मा किया। इस बहादुरी पर उन्हें राष्ट्रपति ने सेना मेडल से अलंकृत किया। जून 30 जून 2004 को अवकाश प्राप्त कर इन्होंने 4 साल तक स्टेशन हेडक्वाटर, मिलिट्री स्टेशन हल्द्वानी में काम किया। 2005 में नंधौर नदी का बांध टूटने पर शक्तिफार्म में बाढ़ आ गई। बाढ़ को समय पर नियंत्रण करने और बांध के तट की मरम्मत करने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई।
(विजय दिवस 16 दिसंबर तक रोज पढ़ें 71 के युद्ध के वीर जवानों की गौरव गाथा...इस खबर पर अपनी राय देने के लिए...मेल करें [email protected], 9675501604 पर व्हाट्सएप भी कर सकते हैं)
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