चिपको आंदोलन को भारत का पहला पर्यावरण आंदोलन कहा जाता है, जिसने इस वर्ष छियालिस वर्ष पूरे कर लिए हैं। हालांकि भारत में पर्यावरण आंदोलन का इतिहास इससे कहीं अधिक पुराना है। ब्रिटिश राज के विरोध में जमीनी स्तर के शुरुआती विरोध में इसकी शिनाख्त की जा सकती है। मसलन, 1859-63 के दौरान नील की खेती के विरोध में बंगाल के किसान विद्रोह में पारिस्थितिकी संबंधी चिंता भी प्रच्छन्न रूप में शामिल थी। गांधी के स्वतंत्रता आंदोलन में भी पारिस्थितिकी तंत्र और लोगों की चिंताएं शामिल थीं, जो देश के करीब सात लाख गांवों में बसे हुए हैं। उन्होंने गांवों को आत्मनिर्भर बनाने की वकालत करते हुए औद्योगिकीकरण का विरोध किया था।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्र निर्माण के लिए भारी-भरकम आधारभूत संरचना की जरूरत महसूस हुई और इसके फलस्वरूप बड़े बांधों और इस्पात संयंत्रों को महत्व दिया गया। औद्योगिकीकरण की इस तेजी का असर जल, जंगल व जमीन पर पड़ा और पर्यावरण आंदोलनों की लहर चल पड़ी, जिनमें नर्मदा बचाओ आंदोलन, अप्पिको आंदोलन और साइलेंट वैली आंदोलन शामिल हैं। हाल के आंदोलनों में ओडिशा के नियमगिरी और तमिलनाडू के तूतुकोडी में कॉर्पोरेट दिग्गज वेदांता के खिलाफ हुए आंदोलन शामिल हैं। इन आंदोलनों की जड़ में विभिन्न तरह के अन्यायों और गैरबराबरियों की परतें होती हैं और इन आंदोलनों में आदिवासियों की भूमिका अहम होती है। पर्यावरण न्याय आंदोलन, जिसे आमतौर पर पर्यावरण आंदोलन कहा जाता है, की जड़ में पारिस्थितिकी वितरण संघर्ष (ईडीसी) हैं। ये संघर्ष शक्ति और आय में गैरबराबरी से उपजी पर्यावरणीय लागत और लाभ के इर्द-गिर्द होने वाले संघर्ष से जुड़े हैं और व्यापक संदर्भ में इसमें नस्ल, वर्ग, जाति और लैंगिक असमानताएं अंतर्निहित हैं। उन्हें प्राकृतिक संसाधनों के अनुचित उपयोग और प्रदूषण के अन्यायपूर्ण बोझ से पैदा हुए सामाजिक संघर्ष के रूप में भी वर्णित किया जा सकता है। पिछले पांच दशकों में ये विकसित हुए और हाल के वर्षों में ये नए स्थानिक और प्रतीकात्मक स्थानों पर हमले कर रहे हैं। पारिस्थितिकी वितरण से संबंधित ये संघर्ष सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों तक सीमित नहीं रहे। इसके बजाए विभिन्न संदर्भों और समूहों में फैल रहे हैं। मसलन गोवा के बंद मोरमुगाव बंदरगाह में कोयला आयात किए जाने का विरोध या फिर मुंबई में मेट्रो रेल से प्रभावित हो रहे आरे जंगल को बचाने के लिए हुआ प्रदर्शन, जो कि शहर की आखिरी हरित पट्टी है।
हम दावे से यह नहीं कह सकते कि पिछले पांच दशकों में भारत में पारिस्थितिकी वितरण से संबंधित कितने संघर्ष हुए। लेकिन एन्वायरमेंटल जस्टिस एटलस (ईजेएटलस) के मुताबिक पर्यावरण न्याय आंदोलनों में भारत सबसे आगे है। इसके मुताबिक भारत में ऐसे तीन सौ संघर्ष रिकॉर्ड में दर्ज किए गए। भारत में इन संघर्षों में 57 प्रतिशत से अधिक पर्यावरणीय न्याय आंदोलनों में आदिवासी समुदाय जुटे हुए हैं। इस तरह के आंदोलनों में आदिवासियों के शामिल होने से ऐतिहासिक बहिष्कार और हाशिए के कारण उत्पीड़न के कई स्तर बढ़ जाते हैं। इसे उस सघन और ऐतिहासिक प्रक्रिया के विश्लेषण से समझा जा सकता है, जिसके जरिये उन्हें दूसरा बनाया गया, उन्हें कोई अधिकार नहीं दिए गए, उन्हें ऐसा वर्ग माना गया जिसके साथ भेदभाव किया जा सकता है और उनका उत्पीड़न दंड मुक्त हो सकता है।
इसके बावजूद उन्होंने जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए संघर्ष को निरंतर जारी रखा है और जमीनी स्तर पर इसी एकजुटता के कारण ही जमीन पर आदिवासियों के अधिकार से संबंधित महत्वपूर्ण कानून पारित हो सका। इस कानून को अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 या वनाधिकार कानून (एफआरए) के रूप में जाना जाता है, जिसने आदिवासियों और अन्य परंपरागत वनवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को स्वीकार किया है। यह वन भूमि और सामुदायिक वन संसाधनों पर पारंपरिक अधिकारों को सुरक्षित करने और लोकतांत्रिक समुदाय आधारित वन प्रशासन की स्थापना पर जोर देता है।
एफआरए वनवासियों के अधिकारों को रिकॉर्ड करने के लिए हुए राष्ट्रीय जमीनी आंदोलन का नतीजा है, जिनके अधिकार औपनिवेशिक शासन के दौरान राज्य के जंगलों के समेकन के दौरान दर्ज नहीं किए गए थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इनमें से कई समुदायों को औद्योगिक और संरक्षण संबंधी परियोजनाओं के कारण बेदखल किया गया, वह भी उन्हें वन भूमि पर अतिक्रमण करने वाला बताकर उनका पुनर्वास किए बिना। एफआरए में दी गई पहचान और सत्यापन की प्रक्रिया ही एकमात्र कानूनी प्रक्रिया है, जिसके जरिये जमीन मालिकों और वन पर उनके अधिकार का निर्धारण हो सकता है। यह इस कानून के लिए एक मजबूत औजार का काम करती है, क्योंकि जब तक पहचान और सत्यापन की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती, कंपनियां या राज्य कानूनी रूप से अपनी परियोजना शुरू नहीं कर सकते। हालांकि पिछले दस वर्षों के दौरान विभिन्न राज्यों में ऐसे अनेक मामले सामने आए हैं, जब प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। कई मामलों में तो एफआरए का साफ-साफ उल्लंघन किया गया।
इसी वर्ष फरवरी में सर्वोच्च अदालत के एक फैसले से तकरीबन एक करोड़ आदिवासियों के सिर पर बेदखल होने की तलवार लटक गई थी, जब वनाधिकार के उनके दावों को खारिज कर दिया गया था। इससे पर्यावरण कार्यकर्ताओं और आदिवासी समुदायों को धक्का लगा था। इस मामले में सुनवाई कई बार टली है। 12 सितंबर, 2019 को हुई सुनवाई में सिक्किम को छोड़कर बाकी सारे राज्यों ने अपना पक्ष प्रस्तुत कर दिया है। इस पर अंतिम सुनवाई 26 नवंबर को होगी। एफआरए के प्रभाव से संबंधित एक रिपोर्ट के मुताबिक सामुदायिक वन संसाधन अधिकार से संबंधित सिर्फ तीन फीसदी दावों का ही निपटारा हो सका है।
- लेखिका, ऑटोनमस यूनिवर्सिटी बार्सीलोना के इंस्टीट्यूट ऑफ एन्वायरमेंटल साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी से संबद्ध हैं।