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विस्तार
भगत सिंह के जन्मस्थल लायलपुर (अब पाकिस्तान का फैसलाबाद) के गांव बंगा तक नंबर 105 को जाने वाली सड़क का नाम 'भगत सिंह रोड' है, जिसका नामकरण तहसीलदार फरहान खान ने किया था। लाहौर में भगत सिंह के गांव की तरफ जो सड़क घूमती है, वहां भगत सिंह की एक तस्वीर लगी हुई है।
पाकिस्तान के कुछ बुद्धिजीवी 'सांझे लोग' नाम से एक वेबसाइट चलाते हैं, जिस पर भगत सिंह की जिंदगी का ब्योरा दर्ज है। पाकिस्तानी कवि और लेखक अहमद सिंह ने पंजाबी में केड़ी मां ने जन्मया भगत सिंह लिखी है। लाहौर में स्थापित नेशनल कॉलेज में ही भगत सिंह ने शिक्षा पाई थी। यह इमारत अब जर्जर हो चुकी है। फिर भी यह हमारी साझी विरासत और मुक्ति-संघर्ष का अनोखा स्मारक है। यहां के ब्रैडला हॉल को भी एक ऐसे संग्रहालय का दर्जा दिए जाने की कोशिशें की जा रही हैं, जो भगत सिंह और स्वतंत्रता आंदोलन को समर्पित होगा। लाहौर के शादमान चौराहे पर भगत सिंह और उनके दो साथियों- राजगुरू और सुखदेव को फांसी दी गई थी।
मानवाधिकार कार्यकर्ता सईदा दीप ने शादमान चौराहे का नाम भगत सिंह पर करने के लिए मुहिम चलाई। कुछ वर्ष पूर्व 23 मार्च के दिन शादमान चौक पर कुछ लोगों ने तेज धूप में घंटों प्रदर्शन किया था, जिनमें सामाजिक कार्यकर्ता, फैक्टरी मजदूर, कुछ वामपंथी, विभिन्न यूनिवर्सिटीज के छात्रों के साथ ही कुछ छोटे बच्चे भी शामिल थे। वे सब जिंदा है, भगत सिंह जिंदा है, वी सैल्यूट भगत सिंह, हर जुल्म का एक जवाब, इन्कलाब जिंदाबाद जैसे नारे लगा रहे थे। उनकी मांग थी-शादमान चौक को भगत सिंह चौक घोषित करो।
वहां मौजूद सोन्या कादिर ने निर्भीकता से कहा, 'पाकिस्तान में भगत सिंह के आदर्शों को फिर से जिंदा करना बहुत जरूरी है। यहां लोग गरीबी में जी रहे हैं। धार्मिक कट्टरता की समस्या मुंह बाए खड़ी है। भगत सिंह की विरासत याद दिलाती है कि हम सभी इंसान हैं और हमें शोषण से मुक्त होना है।’ 2010 में 23 मार्च को लाहौर में लापता व्यक्तियों के मुद्दे पर एक सेमिनार आयोजित हुआ, जिसमें आमिर जलाल का कहना था, 'भगत सिंह भी लापता हैं और अगर हमें खुद को खोजना है, तो हमें उन्हें भी खोजना होगा।'
देश विभाजन के 52 वर्षों बाद जब पाकिस्तान में संभवतः पहली बार भगत सिंह की शहादत की बरसी मनाई गई, जिसमें राजनीतिक कार्यकर्ताओं, लेखकों, पत्रकारों, संस्कृतिकर्मियों और छात्रों ने बेहद अपनेपन से हिस्सेदारी करते हुए इस क्रांतिकारी शहीद को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। पाकिस्तान के प्रतिष्ठित पाक्षिक जद्दोजहद के संपादक मंजूर अहमद ने इस अवसर पर कहा था कि उन्हें आज इस बात पर शर्मिंदगी महसूस हो रही है कि वह उसी शहर कसूर के रहने वाले हैं, जिसके बाशिंदे गुलाम मोहम्मद खां ने भगत सिंह और उनके दो साथियों की फांसी के दस्तावेज पर दस्तखत किए थे, जब किसी दूसरे हिन्दुस्तानी ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया था। आज पाकिस्तान में गुलाम मोहम्मद का कोई नामलेवा नहीं है, जबकि भगत सिंह को बुजुर्ग पीढ़ी बहुत प्यार और इज्जत से याद करती है।
यह भी जानने योग्य है कि 23 मार्च, 1931 की शाम को इन तीनों क्रांतिकारियों की फांसी के बाद उनके शव को जलाते समय अंग्रेजी फौजी अफसर जिस हिंदू पंडित और जिस सिख ग्रंथी को ले गए थे, वे भी कसूर के ही रहने वाले थे। पाकिस्तान में भगत सिंह और उनके शहीद साथियों को जानने वाले आज बहुत कम हैं। इतिहास और संस्कृति का यह सवाल अब बेमानी नहीं है कि सरहद पार शहीदे-आजम की क्रांतिकारी चेतना और शहादत की याद दोनों देशों के मध्य बहुत से मसलों को सुलझाने की दिशा में हमें रोशनी दिखाने का काम कर सकती है। भगत सिंह हमारा है, तो तुम्हारा भी तो है, लाहौरीयां दा। वर्ष 2007 में शहीद भगत सिंह के भांजे प्रोफेसर जगमोहन सिंह ने पाकिस्तान की यात्रा की थी। वह शहीदे-आजम का जन्मशती वर्ष था। उन्होंने भी बताया था कि पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के तत्कालीन गवर्नर ने वादा किया था कि भगत सिंह को फांसी दिए जाने वाली जगह पर शहीद का स्मारक बनाया जाएगा।