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विस्तार
पिछले साल के अंतिम महीनों में चैटजीपीटी के आने के बाद आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस चर्चा में है। कुछ वर्ष पहले पत्रकारिता उद्योग में उम्मीदें जताई जा रही थीं कि इससे समाचारों का वितरण एक नई पीढ़ी में पहुंचेगा और पत्रकारिता जगत में क्रांतिकारी बदलाव होगा। उम्मीद तो यह भी थी कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से फेक न्यूज और मिस इन्फोर्मेशन के प्रसार को रोकने का एक प्रभावी तरीका भी मिल जाएगा, पर व्यवहार में इसके उलट ही हो रहा है। एक तरफ प्रौद्योगिकी ने आर्थिक और सामाजिक विकास किया है, तो दूसरी ओर फेक न्यूज में काफी वृद्धि हुई है।
लोकतांत्रिक राजनीति के लिए अड़चन पैदा करने और चारित्रिक हत्या करने में इंटरनेट एक शक्तिशाली औजार के रूप में उभरा है। अपने सरलतम रूप में, एआई को इस तरह से समझा जा सकता है कि यह उन चीजों को करने के लिए कंप्यूटर का उपयोग करता है, जिनके लिए मानव बुद्धि की आवश्यकता होती है। एआई बाजार पर कब्जा करने के लिए इन दिनों माइक्रोसॉफ्ट के 'चैटजीपीटी' और गूगल के 'बार्ड' के बीच चल रही प्रतिस्पर्धा इसका एक उदाहरण है।
फेक न्यूज की समस्या को डीप फेक ने और ज्यादा गंभीर बना दिया है। असल में डीप फेक में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस एवं आधुनिक तकनीकों के इस्तेमाल के जरिये किसी वीडियो क्लिप या फोटो पर किसी दूसरे व्यक्ति का चेहरा लगाने का चलन तेजी से बढ़ा है। इसके जरिये कृत्रिम तरीके से ऐसे क्लिप या फोटो विकसित किए जा रहे हैं, जो देखने में बिल्कुल वास्तविक लगते हैं।
एक बार जब ऐसे वीडियो किसी सोशल मीडिया प्लेटफोर्म पर आ जाते हैं, तो उनका बहुत तेजी से प्रसार होता है। इंटरनेट पर ऐसे करोड़ों डीप फेक वीडियो मौजूद हैं। भारत जैसे देश में, जहां डिजीटल साक्षरता बहुत कम है, डीप फेक वीडियो समस्या को गंभीर बनाते हैं। लोगों को जब फेक न्यूज वीडियो मिलती है, तो वे उसे तुरंत आगे बढ़ाने में नहीं हिचकते।
एआई की अगली पीढ़ी, जिसे जनरेटिव एआई कहा जाता है, समस्या को अगले स्तर पर ले जाती है। डाल-ए, चैटजीपीटी, मेटा के मेक-ए-वीडियो जैसी साइट्स से आप इस तरह के फोटो, वीडियो बनवा सकते हैं, जो पूर्णतः काल्पनिक हैं। मसलन, पिछले दिनों एक तस्वीर वायरल हुई, जिसमें बराक ओबामा और एंजेला मार्केल समुद्र के किनारे छुट्टियां बिताते हुए दिख रहे हैं, लेकिन यह तस्वीर एआई द्वारा बनाई गई है। इन साइट्स को वीडियो या फोटो को रूपांतरित करने के लिए किसी अन्य स्रोत की जरूरत नहीं होती है। वे संकेतों के आधार पर एक छवि, पाठ या वीडियो बना सकते हैं। इससे भविष्य में बड़े नुकसान की आशंका है, क्योंकि हमारे पास साक्ष्य के रूप में कोई मूल सामग्री होगी ही नहीं।
विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पिछले दिनों साझा किए गए दो सिंथेटिक वीडियो और एक हिंदी अखबार की रिपोर्ट का डिजिटल रूप से बदला हुआ स्क्रीनशॉट, वीडियो बनाने में एआई टूल्स के खतरनाक परिणामों को उजागर करता है। एसी नील्सन की हालिया इंडिया इंटरनेट रिपोर्ट-2023 के आंकड़े चौंकाते हैं। इसमें ग्रामीण भारत में 42.5 करोड़ से अधिक इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं, जो शहरी भारत के 29.5 करोड़ लोगों की तुलना में 44 प्रतिशत अधिक है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि लगभग आधा ग्रामीण भारत इंटरनेट पर है, जिसमें और वृद्धि की संभावना है।
सामान्यतः सोशल मीडिया एक तरह के ईको चैंबर का निर्माण करते हैं, जिनमें एक जैसी रुचियों और प्रवृत्तियों वाले लोग आपस में जुड़ते हैं। ऐसे में डीप फेक वीडियो के प्रसार को रोकने के लिए बुनियादी शिक्षा में मीडिया साक्षरता और आलोचनात्मक सोच को पाठ्यक्रम में शामिल करने की जरूरत है, ताकि जागरूकता को बढ़ावा दिया जा सके। इससे लोगों को फेक न्यूज से बचाने में मदद करने के लिए एक सक्रिय दृष्टिकोण का निर्माण किया जा सकता है। डीपफेक और फेक न्यूज से सतर्क रहने के लिए हमें आज और आने वाले कल के लिए सभी उम्र के लोगों को तैयार करने में एक बहुआयामी, क्रॉस-सेक्टर दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
-प्रोफेसर, पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय