भगवान बुद्ध कहा करते थे कि भिक्षु को सबसे पहले स्वाद का त्याग करना चाहिए। यदि जिह्वा वश में नहीं है, तो संतत्व नष्ट हो जाता है। एक बार भिक्षु बुद्धप्रिय ने अपने दो शिष्यों को आदेश दिया, अब तुम भगवान बुद्ध के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने के कार्य में जुट जाओ। लोगों को अंधविश्वास और आडंबर त्यागकर सदाचारी जीवन बिताने की प्रेरणा दो। अहंकार और क्रोध को पास न फटकने देना। दोनों ने उन्हें प्रणाम किया और धर्म प्रचार के लिए निकल पड़े।
इनमें से छोटा भिक्षु किसी राजघराने का बेटा था। उसे सुस्वादु भोजन करने की आदत थी। भिक्षा में उसे दाल-रोटी मिली। उसने रोटी का पहला कौर मुंह में डाला, तो दाल में नमक न होने के कारण उसे निगल नहीं पाया। उसने एक दुकान से नमक मांगा और स्वाद लेकर खाना खाया।
बड़े भिक्षु ने जब उसे ऐसा करते देखा, तो क्रोधित होकर बोला, यदि तू स्वाद नहीं त्याग सका, तो भिक्षु क्यों बना है। छोटे ने भी क्रोधित होकर कहा, किसने आपको अनुशासन का पाठ पढ़ाने का अधिकार दिया है। बड़े भिक्षु को याद आया कि गुरुदेव ने कहा था कि क्रोध को पास न आने देना। बड़े भिक्षु ने तुरंत विनम्र होकर कहा, मुझे कोई सीख देनी थी, तो प्रेम से कहना चाहिए था। छोटे भिक्षु को भी गलती का एहसास हुआ और उसने कहा, मुझे भी स्वाद का त्याग करना चाहिए। इस तरह दोनों का विवेक जागृत हो उठा।