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प्रेम ही असल भक्ति है

Yashwant Vyas Updated Sun, 03 Jun 2012 12:00 PM IST
संत कवि कबीर के पास एक व्यक्ति बैठा हुआ था। एक भूखा बच्चा उसके पास आया, तथा खाने की मांग की। उसने बच्चे को झिड़क दिया। कबीर को यह सहन नहीं हुआ। उन्होंने अपने भोजन में से एक रोटी उसे दी और कहा, कुछ देर बाद और भोजन आएगा। पेट भर खाना खाना। कबीर ने उस व्यक्ति से कहा, भगवान के दर्शन कैसे हों, यह तुम पूछते रहते हो न। प्रत्येक प्राणी से प्रेम करना सीखो, किसी पर क्रोध न करो-भगवान के दर्शन का काम स्वतः आसान होता चला जाएगा।


कबीर उपदेश में कहते हैं, राम रसाइन प्रेम रस, पीवत अधिक रसाल, कबीर पीवण दुलभ है, मांगै सीस कलाल। यानी, प्रेम ऐसा अनूठा रसायन है कि उसे पीने के सभी आकांक्षी हो जाते हैं, पर यह सबके लिए सुलभ नहीं हो पाता। प्रेम रस का विक्रेता कलाल मूल्य के रूप में सिर मांगता है। वह आगे कहते हैं, प्रेम में सराबोर व्यक्ति ही परमात्मा की कृपा की अनुभूति कर सकता है। वह अपनी आत्मा को प्रेयसी मानते हैं तथा परमात्मा को प्रियतम।


निश्चल प्रेम में डूबी आत्मा सहज ही में परमात्मा से एकाकार हो जाती है- लाली मेरे लाल की, जित देखौ तित लाल। लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल। कबीर कहते हैं, हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई। बूंद समानी समद मैं, सो कत हेरी जाईं। अर्थात, जिस प्रकार बूंद समुद्र में तथा लवण पानी में समा जाता है, वैसे ही प्रेमी भगवान में लीन हो जाता है।
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