जाफर सादिक अरब के परम तपस्वी संत थे। वह जगह-जगह जाकर लोगों को तमाम दुर्गुणों का त्याग कर शील-सदाचार का जीवन बिताने की प्रेरणा दिया करते थे। वह कहा करते थे कि इंद्रियों को संयम में रखने वाला ही सच्चा साधक होता है।
एक व्यक्ति संत सादिक के सत्संग के लिए पहुंचा। उसने कहा, जाने-अनजाने मुझसे पाप कर्म हो ही जाता है। इससे बचने का क्या उपाय है? संत ने जवाब दिया, यदि कुसंगी से बचे रहोगे, तो पाप कर्म होगा ही नहीं। चार प्रकार के मनुष्यों से साधक को हमेशा बचे रहना चाहिए। चार प्रकार के वे मनुष्य हैं- मिथ्याभाषी, मूर्ख, कृपण और नीच प्रवृत्ति का व्यक्ति। मिथ्याभाषी ठगकर पथभ्रष्ट कर सकता है, जबकि मूर्ख हमेशा अहित ही करता है। इसी तरह कृपण अपने स्वार्थ के लिए साधक को गलत कार्य करने के लिए बाध्य कर सकता है, जबकि नीच प्रवृत्ति वाला व्यक्ति भी पाप कर्म की ओर अग्रसर कर सकता है। इसलिए ऐसे व्यक्तियों से बचकर ही रहना चाहिए।
संत सादिक हमेशा उपदेश में कहा करते थे, जिस पाप के आरंभ में ईश्वर का भय और अंत में ईश्वर से क्षमा याचना होती है, वह पाप भी साधक को ईश्वर के समीप ले जाता है। किंतु जिस तपश्चर्या के आरंभ में अहं भाव और अंत में अभिमान होता है, वह तप भी तपस्वी को ईश्वर से दूर ले जाता है। अहंकारी साधक को सही अर्थों में साधक नहीं कहा जा सकता। प्रभु की प्रार्थना करने वाला पापी भी 'साधक' है।
जाफर सादिक अरब के परम तपस्वी संत थे। वह जगह-जगह जाकर लोगों को तमाम दुर्गुणों का त्याग कर शील-सदाचार का जीवन बिताने की प्रेरणा दिया करते थे। वह कहा करते थे कि इंद्रियों को संयम में रखने वाला ही सच्चा साधक होता है।
एक व्यक्ति संत सादिक के सत्संग के लिए पहुंचा। उसने कहा, जाने-अनजाने मुझसे पाप कर्म हो ही जाता है। इससे बचने का क्या उपाय है? संत ने जवाब दिया, यदि कुसंगी से बचे रहोगे, तो पाप कर्म होगा ही नहीं। चार प्रकार के मनुष्यों से साधक को हमेशा बचे रहना चाहिए। चार प्रकार के वे मनुष्य हैं- मिथ्याभाषी, मूर्ख, कृपण और नीच प्रवृत्ति का व्यक्ति। मिथ्याभाषी ठगकर पथभ्रष्ट कर सकता है, जबकि मूर्ख हमेशा अहित ही करता है। इसी तरह कृपण अपने स्वार्थ के लिए साधक को गलत कार्य करने के लिए बाध्य कर सकता है, जबकि नीच प्रवृत्ति वाला व्यक्ति भी पाप कर्म की ओर अग्रसर कर सकता है। इसलिए ऐसे व्यक्तियों से बचकर ही रहना चाहिए।
संत सादिक हमेशा उपदेश में कहा करते थे, जिस पाप के आरंभ में ईश्वर का भय और अंत में ईश्वर से क्षमा याचना होती है, वह पाप भी साधक को ईश्वर के समीप ले जाता है। किंतु जिस तपश्चर्या के आरंभ में अहं भाव और अंत में अभिमान होता है, वह तप भी तपस्वी को ईश्वर से दूर ले जाता है। अहंकारी साधक को सही अर्थों में साधक नहीं कहा जा सकता। प्रभु की प्रार्थना करने वाला पापी भी 'साधक' है।