एक पौराणिक कथा है। एक बार ब्रह्मा जी ने जीव से कहा, अरे जीवात्मा मैंने तुमको बनाया है। जीवात्मा ने कहा, ब्रह्मा जी आप अपनी भ्रांति दूर कर लो। मैं तो चिदाकाश हूं, चिन्मात्र हूं। आपकी क्या गिनती? सैकड़ों ब्रह्मा, सैकड़ों शंकर मेरी आत्मा का प्रकाश हैं। आप मुझे (आत्मा) नहीं बना सकते। आप तो शरीर मात्र बना सकते हैं, जो क्षणिक है।
गीता में कहा गया है, गुरु अपने शिष्य से कहते हैं, माया माया कथं तात, माया छाया न विद्यते। शिष्य तुम जिस माया की बात करते हो, वह माया है कहां? मेरे स्वरूप में माया की छाया नहीं है। स्वामी असंगानंद उपदेश में कहते हैं, मेरा तेरा करे गंवारा, तेरा तेरा, न कुछ हमारा। ये मेरा, ये तेरा... ये क्या? यह तो काल्पनिक संसार की कल्पना मात्र है। यह सुख है, यह ऐश्वर्य है, यह दुख है, यह पीड़ा है, यह अच्छा है, यह बुरा है आदि सोच-सोचकर प्राणी समय गंवाता रहता है। एक ही झपट्टे में काल शरीर को निष्प्राण बना देता है। जब प्राण शरीर से निकल जाता है, तब सब कल्पनाएं ध्वस्त हो जाती हैं।
संत उपदेश में कहते हैं, सांसारिक लोग मानव शरीर जैसी दुर्लभ वस्तु प्राप्त कर लेने पर भी अज्ञान के कारण खुद को अभावग्रस्त मानकर दुखी होते रहते हैं। जबकि जो शरीर को नश्वर मानकर, आत्मज्ञान की खोज में लगता है, उसे कदापि न सुख की अनुभूति होती है, न वह कभी दुख से दुखी होता है। सच्चिदानंद परमात्मा हर क्षण उसे आनंदमय बनाए रखता है।