एक पौराणिक कथा है। संत विद्रुध भगवान की भक्ति, तपस्या में तो लगे ही रहते थे, दूसरों की सेवा-सुश्रषा में भी भरपूर समय लगाते थे। उन्हें प्राणी मात्र में ईश्वर के दर्शन कर उसकी सेवा की प्रेरणा इस कदर मिली थी कि जब कुष्ठ रोग से पीड़ित एक महिला को उन्होंने देखा, तो पूजा-पाठ छोड़कर उसकी सेवा में जुट गए। इन सेवा-कार्यों से उनके पुण्यों का खजाना तेजी से बढ़ता गया। और जब उन्होंने शरीर छोड़ा, तो उन्हें स्वर्ग भेज दिया गया।
स्वर्ग में अनेक अलौकिक सुखों की व्यवस्था थी, किंतु विद्रुध को सुख प्रभावित नहीं कर पाया। उनकी इच्छा होती थी कि काश, वह फिर से पृथ्वी लोक पर भेज दिए जाते, जहां उन्हें एक बार फिर दुखियों और अभावग्रस्तों की सेवा का सुअवसर मिलता। स्वर्ग के सुखों का उन्होंने कभी उपयोग नहीं किया।
देवराज इंद्र को जब पता चला कि विद्रुध स्वर्ग के सुखों का उपयोग नहीं कर रहे, तो उन्होंने इसका कारण पूछा। विद्रुध ने कहा, देवराज, मुझे पृथ्वी पर दुखियों की सेवा-सहायता में जो अनूठा आनंद मिलता था, उससे विमुख कर दिए जाने के कारण मैं दुखी रहता हूं। भौतिक सुखों में मुझे कभी आनंद की अनुभूति नहीं हुई, तो अब कैसे होगी?
देवराज उनकी विरक्ति भावना देखकर हतप्रभ थे। उन्हें फिर से पृथ्वी लोक भेज दिया गया, जहां वह अपने सेवा कार्य में जुट गए। सेवा परोपकार के लिए स्वर्ग के सुखों को ठुकराने वाले विरल ही होते हैं।