घोर तपस्या करके दैत्य भले ही देवी-देवताओं को प्रसन्न कर वरदान पाने में सफल हो जाते थे, लेकिन जब वे मर्यादाओं का हनन करते थे तथा दूसरों को पीड़ा देते थे, तो उन्हें दिया गया वरदान भी निष्फल हो जाता था और वे मृत्यु को प्राप्त होते थे। हयग्रीव नामक असुर ने घोर-तपस्या के बल पर महामाया को प्रसन्न कर लिया। देवी ने प्रसन्न होकर उससे मनचाहा वर मांगने को कहा। हयग्रीव अपने दुष्कृत्यों से भलीभांति परिचित था।
वह जानता था कि उसे पापों का कुफल भोगना ही पड़ेगा, इसलिए उसने सोचा कि ईश्वर से क्यों न अमर होने का वर मांग लिया जाए। चूंकि यह वर मिलना मुश्किल था, इसलिए उसने चतुराई का परिचय देते हुए कहा, देवी, ऐसा वर दो कि मुझे मेरे अलावा कोई दूसरा न मार सके। महामाया ने वर देते हुए चेतावनी दी कि अगर सज्जनों को पीड़ा पहुंचाने की उसने कोशिश की, तो उसे अपने दुष्कृत्यों की अग्नि में जलना ही पड़ेगा।
कुछ दिनों तक तो हयग्रीव ने संयमित जीवन जिया, पर कुसंग के कारण वह पुनः सत्पुरुषों पर अत्याचार करने लगा। ऋषियों द्वारा किए जाने वाले यज्ञों में उसने विघ्न डालना शुरू कर दिया। उसके दुष्कृत्यों से सभी देवता क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने एक स्वर में महामाया से इस समस्या का उपाय निकालने को कहा। हयग्रीव के पापों का घड़ा भर चुका था। उसके मुंह से अग्नि की ज्वालाएं निकलने लगीं। उन ज्वालाओं ने उसे तथा उसके साथी दैत्यों को जलाकर भस्म कर डाला।