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पुरुषार्थ कभी मत छोड़ना

Yashwant Vyas Updated Tue, 01 May 2012 12:00 PM IST
त्रिपुर रहस्य के ज्ञानकांड में कहा गया है, श्रद्धया पौरुषपरो न विहन्यते सर्वथा। दृढं पौरुषमाश्रित्य स प्राप्येत यथाफलम्। यानी, श्रद्धा व निष्ठापूर्वक पुरुषार्थ करने में तत्पर पुरुष का कार्य कभी भी सिद्ध हुए बिना नहीं रहता।


एक बार महर्षि वशिष्ठ ने ब्रह्मा जी से पूछा, भगवन्, दैव और पुरुषार्थ में किसकी श्रेष्ठता है? ब्रह्मा जी ने बताया, महर्षि, बिना बीज के न तो कोई वस्तु उत्पन्न हो सकती है, और न ही कोई फल मिल सकता है। किसान खेत में जैसा बीज बोता है, उसी के अनुसार उसको फल मिलता है। इसी प्रकार मनुष्य पुण्य या पाप जैसा कर्म करता है, उसी के अनुसार फल भोगता है।


ब्रह्मा जी कहते हैं, किसान को अच्छे से अच्छा बीज उपलब्ध होने पर भी उसे बोने की प्रक्रिया में पुरुषार्थ तो करना ही पड़ता है। पुरुषार्थी मनुष्य का सर्वत्र सम्मान होता है, परंतु आलसी और निकम्मे मनुष्य की कहीं प्रतिष्ठा नहीं होती। कर्म करने से संसार में सब कुछ मिल सकता है। केवल भाग्य के भरोसे बैठे रहने से कुछ नहीं मिल सकता।

ब्रह्मा जी आगे कहते हैं, कृतः पुरुषकारस्तु दैवभेवानुवर्तते, अर्थात पुरुषार्थ करने वाले का साथ देवता भी देते हैं। ईश्वर या देवता सिद्धि के लिए जो तप करते हैं, वह भी एक कर्म या पुरुषार्थ ही है। किंतु दैव को तुच्छ समझना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उन्हीं के प्रभाव से मनुष्य सत्कर्म की ओर प्रवृत्त होता है।
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