भगवान महावीर की विशाल प्रतिमा को प्रणाम करके मंदिर से बाहर आकर भारतीदेवी धीरे-धीरे अपने घर की ओर बढ़ने लगीं। सत्तर वर्ष की विदुषी का यह नित्य कर्म था। जब से इस कॉलोनी के मकान मे रहने आए, वे अकेले ही दर्शन को चली आती हैं। यह बड़ा अच्छा रहा कि यहां पहले से मंदिर बना हुआ था, अन्यथा शहर के मकान से तो किसी को रोज साथ लेकर ही जाना पड़ता था।
अपने विचारों मे डूबी वे मंदिर से कोई सौ कदम आगे जैसे ही अपनी गली में दाखिल होने के लिए मुड़ने लगीं, सामने से मोटर साइकिल पर दो पुलिस जवान आते दिखाई दिए। दोनों बड़ी हड़बडी और जल्दबाजी में लग रहे थे। उन्होने भारतीदेवी के समीप आकर अंपनी बाइक रोक दी और कहने लगे, ' माताजी कुछ खबर है कि नहीं, इसी गली में पुष्पा मैडम की किसी ने हत्या कर दी है, डाका भी पड़ा है, जरा सावधान रहना और हां, ये आपके कंगन, चेन भी निकालकर अलग रख लो, कहीं भगदड़ में कोई झपट न ले।'
पुष्पा मैडम की हत्या! भारतीदेवी हतप्रभ रह गईं, अरे वह तो उनकी पड़ोसी है! सुधबुध खोकर वे गले में पहनी चेन खोलकर जल्दी-जल्दी हाथों के कंगन उतारने लगीं। एक पुलिसकर्मी ने उनके गहने लेकर अपने रुमाल में लपेटकर भारतीदेवी को थमा दिए। इसके पहले कि वे गहनों की पोटली अपने पल्लू में बांधतीं, बाइक चौराहे की ओर तेजी से दौड़ गई।
कुछ देर बाद भारतीदेवी ने अपने को संभाला, तो आशंका से भर गईं कि कहीं वे भी उन ठगों का शिकार तो नहीं हो गईं हैं, जो पुलिस बनकर बुजुर्ग महिलाओं को अपना निशाना बनाते रहे हैं।
तुरंत पोटली खोलकर देखी, सचमुच रूमाल में लोहे की चूड़ियां तथा तार के टुकडे़ बंधे हुए थे। वे चीख पड़ीं। माथे पर पसीने की बूंदें उभर आईं, लगा अभी चक्कर खाकर गिर पड़ेंगी। किसी तरह अपने को संयत करने लगीं।
उनके आसपास तब तक भीड़ जमा हो गई थी। लोग पूछ रहे थे-'क्या हो गया माताजी ? क्या किसी ने टक्कर मार दी है?
'नही, टक्कर नही हुई है, जेवर ठग कर ले गए मोटर साइकिल वाले।' बड़ी मुश्किल से वे बोल पाईं।
'क्या पुलिसवाले थे माताजी?' किसी ने पूछा।
भारतीदेवी को अनायास बचपन में पढ़ी एक कहानी याद आ गई। कहीं ऐसा ना हो कि लोगों का पुलिस पर से विश्वास ही उठ जाए, बरबस उनके मुंह से निकला-'नहीं वे पुलिसवाले नहीं, कोई बदमाश थे।'