बीते दिनों लोकसभा में एक सवाल के जवाब में श्रम एवं कल्याण मंत्री मल्लिकार्जुन खड़गे ने जानकारी दी कि पिछले वित्त वर्ष में श्रमिक अशांति और हड़तालों के कारण देश को 500 करोड़ से ज्यादा का नुकसान हुआ। यह राशि इससे पिछले वर्ष की तुलना में तीन गुना ज्यादा है। इस तरह के वक्तव्य एक भिन्न प्रकार की अर्थच्छवियां प्रस्तुत करते हैं। यह प्रकारांतर में स्थापित करने की कोशिश है कि देश की जनता अनुशासनहीन और कामचोर है तथा इसी वजह से देश अपेक्षित प्रगति नहीं कर पा रहा।
यह पहली बार नहीं है। हाल के वर्षों में यह प्रचलन तेजी से बढ़ा है। बाजारवाद के पैरोकार बुद्धिजीवियों से लेकर बड़ी-बड़ी कंपनियों के सीईओ तक सभी हड़तालों, यहां तक कि किसी भी प्रकार के विरोध, को अनुचित ठहरा रहे हैं। इनके लिए विरोध अनुशासनहीनता है। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि विरोध हमेशा गलत नहीं होता। औद्योगिक क्रांति के दौर में इंग्लैंड में 16-17 घंटे की दिहाड़ी को स्वाभाविक माना जाता था। लेकिन जैसे-जैसे समाज में लोकतांत्रिक चेतना का विकास हुआ, मजदूरों के भीतर से यह मांग तेजी से उठने लगी कि काम के घंटे तय होने चाहिए। और फिर आठ घंटे के काम को एक श्रमिक दिवस माना गया। साप्ताहिक अवकाश की अवधारणा भी ऐसे ही नहीं स्वीकार हो गई। इसके लिए भी दुनिया भर के श्रमिकों को खासा संघर्ष करना पड़ा। जो कुछ मिला है, विरोध के कारण ही। फिर विरोध-प्रदर्शनों और आंदोलनों को नाजायज कैसे ठहराया जा सकता है?
जो लोग देश के आम आदमी को स्वार्थी और आरामतलब ठहरा रहे हैं, वे भूल जाते हैं कि इसी देश के लोगों ने आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था। उन्होंने नौकरियां छोड़ीं, घर-परिवार त्यागा। वे इसी देश के लोग थे, जिन्होंने देश में अन्न की कमी को देखते हुए लाल बहादुर शास्त्री के आह्वान पर एक जून का खाना तक छोड़ दिया। वे इसी देश की महिलाएं थीं, जिन्होंने पाकिस्तान से जंग के दौरान देश की आर्थिक स्थिति को देखकर अपने गहने सरकार को दान दे दिए। इसी देश के आम नागरिक की हाड़-तोड़ मेहनत के कारण हरित क्रांति हुई और देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो सका। आम आदमी की ही मेहनत के कारण तमाम फैक्टरियों में उत्पादन कहां से कहां पहुंच गया है।
आज देश में कार्य संस्कृति कमजोर हुई है, तो उसके लिए सामान्य नागरिक को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है? कोई भी समाज हमेशा प्रेरणा के लिए नेतृत्व की ओर देखता है। और नेतृत्व का हाल क्या है? शीर्ष स्तर पर हर ओर लूट मची है। उद्योगपति अपना घर भर रहे हैं। फोर्ब्स जैसी पत्रिका में छपी सूची बताती है कि भारत में करोड़पतियों और अरबपतियों की संख्या हर साल कई गुना बढ़ती जा रही है। नेताओं के खाते विदेश में हैं। अफसरों की घोषित-अघोषित संपत्तियों की कोई गिनती ही नहीं है। ऐसे में आम आदमी से अपेक्षा की जा रही है कि वह और मेहनत करे। नीति-नियंताओं को 40 हजार करोड़ की मनरेगा जैसी योजना तो भार लगती है, लेकिन इससे कहीं ज्यादा रकम जो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है, उसके बारे में कोई कुछ नहीं बोलता। इस तरह के आंकड़े अखबारों में रोज छपते हैं कि अमुक उद्योगपति की बैंकों पर इतने हजार करोड़ की देनदारी है, तो अमुक उद्योगपति पर इतने हजार करोड़ की। बैंक भी पिछला बकाया चुकाए बिना जनता की गाढ़ी कमाई से इन्हें कर्ज दे देते हैं। मुनाफा हुआ, तो इनका और रकम डूबी, तो पब्लिक की।
ऐसे माहौल में श्रमिक अशांति की दुहाई देना दोहरापन नहीं, तो और क्या है? लोकसभा में 500 करोड़ डूबने की जो दुहाई दी गई, उसके बरक्स नेताओं, उद्योगपतियों और नौकरशाहों की जेब में गई रकम को देखें, तो 500 करोड़ कुछ भी नहीं ठहरता। दरअसल खीरा चोर पर उंगली उठाने से पहले हीरा चोर को पकड़ने की जरूरत है। जनता प्रेरणा के लिए नेतृत्व की ओर देखती है और अगर नेतृत्व सही हो, तो वह कुछ भी करने को तैयार हो जाती है। जाहिर है, हमारे नीति-नियंताओं को श्रमिकों के बारे में अपना नजरिया बदलने की जरूरत है।
विज्ञापन
विज्ञापन
विज्ञापन
विज्ञापन
एड फ्री अनुभव के लिए अमर उजाला प्रीमियम सब्सक्राइब करें
अतिरिक्त ₹50 छूट सालाना सब्सक्रिप्शन पर
Next Article
Disclaimer
हम डाटा संग्रह टूल्स, जैसे की कुकीज के माध्यम से आपकी जानकारी एकत्र करते हैं ताकि आपको बेहतर और व्यक्तिगत अनुभव प्रदान कर सकें और लक्षित विज्ञापन पेश कर सकें। अगर आप साइन-अप करते हैं, तो हम आपका ईमेल पता, फोन नंबर और अन्य विवरण पूरी तरह सुरक्षित तरीके से स्टोर करते हैं। आप कुकीज नीति पृष्ठ से अपनी कुकीज हटा सकते है और रजिस्टर्ड यूजर अपने प्रोफाइल पेज से अपना व्यक्तिगत डाटा हटा या एक्सपोर्ट कर सकते हैं। हमारी Cookies Policy, Privacy Policy और Terms & Conditions के बारे में पढ़ें और अपनी सहमति देने के लिए Agree पर क्लिक करें।