जब से नवउदारवाद का युग आरंभ हुआ है, तब से जनतंत्र एवं जनतांत्रिक संस्थानों, राजनीतिक दलों, राजनेताओं और राजनीतिक प्रक्रिया की प्रतिष्ठा कम करने की कोशिशें बड़े पैमाने पर चल रही हैं। उन्हें भ्रष्ट और अक्षम बताया जा रहा है। दूसरी ओर, बड़े उद्योगपतियों ने स्वयं को जननिष्ठ और उदार दिखलाने के लिए 'कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी' की अवधारणा प्रस्तुत की है।
निस्संदेह पिछले कई दशकों से हमारे राजनीतिक दलों और नेताओं का स्तर गिरा है, किंतु यह गिरावट अन्य क्षेत्रों में भी देखी गई है। चाहे व्यावसायिक जगत हो या शिक्षा-संस्कृति की दुनिया, कोई भी इससे अछूता नहीं है। जहां तक राजनीतिक जगत का प्रश्न है, राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं और कार्यकर्ताओं के दुनिया से विदा होने, उनके मूल्यों और दृष्टिकोण के लुप्त हो जाने तथा कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट और श्रमिक आंदोलनों के कमजोर होने के बाद अब ऐसे बहुत कम राजनेता और कार्यकर्ता रह गए हैं, जिनका जनता के साथ निरंतर जीवंत लगाव है। अब ज्यादातर मध्यम प्रतिभा वाले ही सक्रिय राजनीति में आ रहे हैं, जिन्हें या तो सामाजिक-राजनीतिक दबदबे की दरकार है या जिन्हें अपनी हैसियत के जरिये अधिकाधिक धन-संपदा बटोरना है।
देश में चुनाव अभियान का स्वरूप बदल गया है। हर दल में निष्ठावान कार्यकर्ताओं का भारी अभाव है। इसलिए भाड़े पर बेरोजगार युवकों को चुनाव अभियानों में लगाया जाता है और पैसे के साथ ही विजयी होने पर नौकरी, दुकान, पेट्रोल पंप, ठेके, बस परमिट आदि दिलाने का आश्वासन दिया जाता है। मीडिया मालिकों तथा पत्रकारों को अपने पक्ष में करने की कोशिशें होती हैं। 'पेड न्यूज' की परिघटना इसी क्रम में उभरी है। इन सबके लिए भारी पैसे की जरूरत होती है, जो धनवानों के चंदों से आती है। धनवान अपना स्वार्थ साधने के लिए चंदा देने को तत्पर होते हैं, क्योंकि उन्हें खनिज पदार्थ, वन संपदा, ठेकों आदि के साथ करों में छूट, लाइसेंस, वित्तीय संस्थानों आदि से संसाधन चाहिए।
पश्चिमी देशों की तर्ज पर हमारे जनतंत्र का स्वरूप भी बदल रहा है। हमारी राजनीति और चुनावी प्रक्रियाएं अब निरंतर धन से संचालित होती दिख रही हैं। आम जन को बेशक मताधिकार प्राप्त है, पर उसे प्रभावित करने के उद्देश्य से तरह-तरह के हथकंडे इस्तेमाल किए जा रहे हैं। अमेरिकी अर्थशास्त्री रॉबर्ट कुट्टनर की मानें, तो धन-आधारित चुनावी अभियान राजनीति को वहां ले जाते हैं, जहां मतदाता को एक खिलौना समझा जाता है और हथकंडों के जरिये उसे वश में करने की कोशिश की जाती है। इस प्रकार मतदाताओं, विशेषकर युवाओं को राजनीतिक प्रक्रिया से विमुख करने के प्रयास होते हैं।
इसके साथ-साथ कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी की अवधारणा का महिमा मंडन करते हुए बताया जा रहा है कि कॉरपोरेट क्षेत्र समाज और देश के प्रति अपने कर्तव्यों के निर्वहन में लगा है। उसे राज्य या सरकार के निर्देश की जरूरत नहीं है। राज्य को उससे कर उगाही द्वारा समाज कल्याण की योजनाओं को चलाने के झंझट में नहीं पड़ना चाहिए। ऐसा करने पर करों की वसूली और योजनाओं के निर्माण एवं क्रियान्वयन का खर्च भी बचेगा। साथ ही नौकरशाही तथा बिचौलियों द्वारा हेराफेरी की घटनाएं नहीं होंगी। बड़े कॉरपोरेट घरानों ने इस अवधारणा के जरिये अपनी छवि चमकाने की कोशिश की है। यही वजह है कि बिल और मिलिंडा गेट्स तथा वारेन बफे का प्रशस्ति गायन अफ्रीका से लेकर बिहार तक के सत्ताधिकारी कर रहे हैं। सरकार से कहा जा रहा है कि वह कॉरपोरेट क्षेत्र को नियंत्रित और अनुशासित करने के लिए कोई पहल न करे और जिन कॉरपोरेशनों ने सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के लिए आचार संहिता बनाई है, उन पर भरोसा किया जाना चाहिए। इससे अनेक राजनेता भी खुश हैं, क्योंकि यदि आम लोग इस अवधारणा से खुश होते हैं, तो उन्हें जनकल्याण के लिए चिंतित होने की जरूरत नहीं पड़ेगी और न ही कोई कानून बनाने की जहमत उठानी पड़ेगी।
हालांकि कइयों का मानना है कि 1960 के दशक से प्रचारित इस अवधारणा के बावजूद पूंजीवाद के चरित्र में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है। अधिकाधिक मुनाफा कमाने का भूत उस पर पहले जैसा ही हावी है। यूनियन कार्बाइड हो या ब्रिटिश पेट्रोलियम अथवा एनरॉन, सबने भारी लूट-खसोट की है और सामाजिक हितों को नुकसान पहुंचाया है। अतः उद्योग जगत द्वारा कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी की चादर से असली चेहरा छिपाने का एक नाटक चल रहा है। अब तक इसके सुबूत नहीं मिले हैं कि कॉरपोरेट जगत वाकई स्वनियंत्रण में रुचि रखता है तथा उसकी दिलचस्पी देश के कानूनों और नैतिक मानकों के निर्वहन में है। अपने ही देश को लें, यहां इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इस अवधारणा से प्रभावित होकर स्वनियंत्रण की खूब चर्चा हो रही है। चैनलों के मालिक और प्रबंधक इससे सम्मोहित होकर कह रहे हैं कि सरकार अलग बैठे, वे स्वयं ही देश व समाज के हित में अपना नियंत्रण करेंगे। उनके ऊपर न्यायमूर्ति काटजू की तरह किसी को बिठाने की कतई जरूरत नहीं है। लेकिन वस्तुस्थिति इस दावे का समर्थन नहीं करती। निजी चैनलों पर विज्ञापन ने ठोस समाचारों को लगभग बाहर कर दिया है। इन चैनलों के कार्यक्रम लोगों की स्वतंत्र चिंतन की क्षमता को कुंद कर रहे हैं।